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________________ १२८ जैनदर्शन : जीवन और जगत् सदर्भ मे ये स्वर भी उभरे कि मोक्ष का अधिकारी सन्यासी ही हो सकता है । गृहस्थ मुक्ति का अधिकारी नही है । भगवान् महावीर ने भी कहा - "बधे गिहवासे, मोक्खे परियाये" गृहवास बन्धन है, पर्याय -- मुनि-जीवन मोक्ष है । क्योकि "सोवक्के से गिहवासे, निरुवक्केसे परियाये" गृहवास सक्लेशो से भरा है, पर्याय क्लेश-रहित है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि गृहस्थ मोक्ष प्राप्त कर ही नहीं सकता। जैन धर्म के प्रवक्ता आचार्यों ने कहा न्यायाजितधन स्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रिय । __ शास्त्रवित् सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते ।। जिसके अर्थार्जन के स्रोत शुद्ध हो, जिसकी तत्त्वज्ञान मे निष्ठा हो, त्यागी साधु-सन्तो के प्रति अनुराग हो, जो धर्म-शास्त्रो का ज्ञाता हो और सत्यवादी हो, वह व्यक्ति गृहस्थ मे रहता हुआ भी मुक्त हो सकता है। जैन-श्रावक के लिए निर्दिष्ट उक्त बारह व्रत निश्चित ही व्यवहारशुद्धि के पोपक हैं। इनमे नीति, प्रामाणिकता, सयम सदाचार और सात्विकता की प्रधानता है। इन व्रतो के पालन से जो तथ्य फलित होते हैं, उनमे आदर्श समाज के निर्माण की परिकल्पना निहित है । व्रतो के फलित१ अहिंसा अणुव्रत के फलित - अहिंसा का साधक किसी के साथ क्रूर व्यवहार नहीं करता। अधीनस्थ व्यक्ति के श्रम और शक्ति का शोषण नहीं करता, उसके भक्तपान का विच्छेद नही करता । किसी की दुर्बलता का अनुचित लाभ नहीं उठाता। २. सत्य अणवत के फलित -सत्य का माधक किसी का मर्म-प्रकाशन नही करता । झूठे दस्तावेज या लेख नही लिखता । किसी पर झूठा आरोप नही लगाता। ३. अचौर्य अणुव्रत के फलित – अस्तेय का साधक चोरी का माल नही लेता। राष्ट्रीय हितो का विरोधी व्यापार नहीं करता। ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत के फलित-ब्रह्मचर्य का साधक यथाशक्ति ग्रह्मचर्य का पालन करता है, इद्रिय-विजय और मनो-विजय का अभ्यास करता है।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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