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________________ । जैनधर्म मे जातिवाद का आधार ११७ मध्याह्न मे खरीरदारी करता हू अथवा सहयोग का विनिमय करता हू, अत' वंश्य हूँ। मेरी वृत्ति है अध्यापन, इसलिए ब्राह्मण हू तथा अपनी और अपने परिवार की रक्षा का दायित्व निभाता है, इसलिए मैं क्षत्रिय भी है। यही बात भगवान महावीर ने कही थी - मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । इसलिए जाति को लेकर किसी से घृणा मत करो। जाति का वर्गीकरण कर्म के आधार पर होता है इस तथ्य को समझाते हुए उन्होने कहा-समाज व्यक्तियो से बनता है । व्यक्तियों में शक्ति की भिन्नता और तरतमता होती है। उसी के अनुरूप कर्म होता है । कर्म जाति का आधारभूत तत्त्व है। भगवान् महावीर और बुद्ध ने जातिवाद के विरुद्ध तीव्र आन्दोलन चलाया । उन्होने कहा- जाति का गर्व मत करो। जाति का अह नरक का कारण है । इतने प्रयत्नो के बावजूद भी हमारे देश मे जातिवाद का जुडाव मानव-मन के साथ गहरा हो गया है । हीन कुल मे उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को सामान्य मानवीय अधिकारो से वचित कर दिया गया। उसके लिए विकास के सारे द्वार वन्द हो गए । धर्म के लोगो ने जातिवाद की आड में आपसी वैमनस्य को बढावा देने मे प्रमुख भूमिका निभाई । उस समय यह तत्त्व भुला दिया जाता है कि जाति व्यवहाराश्रित है और धर्म आत्माश्रित । आत्म-जगत् मे प्रत्येक प्राणी समान है । वहा जातियो के विभाग इन्द्रियो के आधार पर हैं। धर्म के आधार पर मानव का बटवारा करना धर्म-विरुद्ध है। धर्म के उपदेष्टा ऋषियो ने कहा-प्रत्येक प्राणी को अपने जैमा समझो • उनकी दृष्टि मे भाषा, वर्ण, धर्म, जाति आदि को लेकर भेदभावना को प्रश्रय देना अनुचित है । जातियो की कल्पना केवल कर्म की दृष्टि से की गयी थी। आचार, रीति-रिवाज तथा भौगोलिक दृष्टि से भिन्न होते हुए भी "मनुष्य जाति एक है" ऐसा कह कर सब मे भ्रातृत्व के चीज बोये गये थे। फिर भी मनुष्य इस एकता को भूलकर अनेकता मे विभक्त हो गया। वह जाति के मद मे एक को ऊचा और एक को नीचा समझने लगा । फलस्वरूप समाज मे घणा का वातावरण निर्मित हो गया। श्रमण-परम्परा के विद्वान् माचार्य धर्म-कीर्ति ने जडता के पाच नक्षण वताए हैं, उनमे एक है जाति का अहसार। अह उन्माद पैदा करता है। उन्माद की स्थिति मे इतनी मोटी बात भी समझ में नहीं आती कि भादमी नादमी को नीचा न समझे, उसे भ्रातृत्व की दृष्टि से देखे, भ्रातृत्वभावना का विकास करे। वास्तव मे जाति आदि को लेकर किसी को ऊचा-नीचा समझना
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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