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________________ जैन धर्म में जातिवाद का आधार किसी अमीर व्यक्ति का अह जागा। वैभव के प्रदर्शन की वृत्ति पनपी। मा की पूजा का विराट् आयोजन रखा गया। सोने की चौकी बनवाई। आयोजन के पश्चात् वह स्वर्ण-निर्मित भारी चौकी ब्राह्मण को दक्षिणा मे देते हुए गर्व के साथ बोला-"पडितजी । आज तक कोई इतना बडा दानी आपने देखा क्या ?" जब अह से अह टकराता है तो वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है । एक रुपये के साथ सोने की चौकी लौटाते हुए पडितजी ने कहा- “सेठजी । आज तक कोई इतना बडा त्यागी देखा क्या ?" सेठजी का अह चूर-चूर हो गया। जातिवाद की मान्यता के पीछे भी ऐसी ही गर्वोक्तिया परस्पर टकराती हैं और सघर्ष की चिनगारिया उछलती हैं। ___ जातिवाद का प्रश्न नया नही, हजारो वर्ष पुराना है। महावीर और बुद्ध के समय इसकी चर्चा ने उग्र रूप धारण कर लिया था। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक- सभी क्षेत्रो मे जातिवाद का दैत्य प्रवेश पा चुका था। जातिवाद के मूल मे दो प्रकार की विचार-धाराए रही हैं। एक ब्राह्मण-परम्परा की और दूसरी श्रमण-परम्परा की। एक "जाति" की तात्विक मानती है और दूसरी अतात्विक । ब्राह्मण-परम्परा ने जन्मना जाति का सिद्धात स्थापित कर उसे तात्विक माना, ईश्वर-कृत माना । श्रमण-परम्परा ने कर्मणा जाति का सिद्धात स्थापित कर उसे अतात्विक माना। समाज-व्यवस्था की सुविधा के लिए मनुष्य द्वारा किया गया वर्गीकरण माना। ब्राह्मण-परम्परा ने कहा-ब्रह्मा के मुख से जन्मने वाले ब्राह्मण, भुजा से जन्मने वाले क्षत्रिय, पेट से जन्मने वाले वैश्य और पैरो से जन्मने वाले शूद्र हैं। जन्म-स्थान की भिन्नता के कारण इन वर्गों की श्रेष्ठताअश्रेष्ठता घोषित की गई। ब्राह्मणो को सर्वोत्कृष्ट और पूज्य माना गया । अन्त्यजों को निकृष्टतम और घृणित माना गया। श्रमण-परम्परा ने इस मान्यता का विरोध किया और यह पक्ष स्थापित किया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्म (आचरण) से होत है। जाति के आधार पर किसी को हीन मानना अपराध है। मानवता का अपमान है। जातिवाद के विरुद्ध इस महान क्राति के सूत्रधार थे-भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध । भगवान महावीर ने कहा-हीन जाति में उत्पन्न
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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