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________________ १११ जनदर्शन मे स्याद्वाद विवक्षा और शेष धर्मों की अप्रधानता-अविवक्षा से प्रतिपादन करने की पद्धति अनेकान्तवाद है। 'स्यात्' शब्द के प्रयोग से हम इस प्रयत्न मे सफल हो सकते हैं, अत इसे स्याद्वाद भी कहते हैं। स्यात् का अर्थ सशय या सभव नही । सशय अनिर्णायकता की स्थिति में होता है । वह अज्ञान है । उसकी भाषा बनती है-'यह अच्छा है या बुरा, कुछ नही कह सकते। इसके विपरीत स्वाद्वाद निर्णायक ज्ञान है । उसकी भाषा है-यह अमुक दृष्टि से अच्छा ही है और अमुक दृष्टि से बुरा ही है । वस्तु सत् भी है और असत् भी है। अर्थात् वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सत् है और दूसरे के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'असत्' है । एक फूल है। उसमे अस्ति धर्म जितना सावकाश है, उतना ही नास्ति धर्म भी है। इसलिए प्रत्यक्ष दिखने वाले फूल के विषय मे भी हम निश्चित कह सकते हैं-यह फूल है भी और नही भी। सभवत एक बार यह हमे अटपटा-सा लगे, पर तभी तक, जब तक कि हम उसे विविध अपेक्षाओ के परिप्रेक्ष्य मे नही समझ लेते । दष्टियां नही द्रव्य दृष्टि यह गुलाब का फूल है कमल का फूल नहीं है क्षेत्र दृष्टि यह जयपुर का है उदयपुर का नही है काल दृष्टि यह वसन्त ऋतु का है ग्रीष्म का नहीं है भाव दृष्टि यह विकसित है अविकसित नहीं है। इस प्रकार एक ही वस्तु मे दार्शनिक दृष्टि से नित्य-अनित्य आदि तथा व्यावहारिक दृष्टि से छोटा-बडा, दूर-समीप, अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा, शीतल-उष्ण आदि अनन्त धर्मों की अवस्थिति निर्वाध है। यह 'स्यात्' शब्द परस्पर-विरुद्ध धर्मों का प्रतिपादन नहीं करता, अपितु हमे जो विरोध लगता है, उसका यह अपेक्षा भेद से निरसन करता है। प्रत्येक पदार्थ के विविध रूप हैं। उसे एकरूप मानना चिंतन की जडता का प्रतीक है। भोजन की उपयोगिता को कोन नकार सकता है ? वह भूखे व्यक्ति के लिए परम रसायन, औषध तथा अमृत है । लेकिन वही अजीर्णग्रस्त व्यक्ति के लिए क्या जहर नही बन सकता ? व्यायाम स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं, परन्तु किन्ही परिस्थितियो मे वह अस्वास्थ्य को बढाने वाला भी हो जाता है।। हम इस सापेक्ष दृष्टि को दूसरे उदाहरण से और समझे। मान लें दो व्यक्तियो ने एक ही समय में एक ही घडे का पानी पिया। एक को वह पानी बहुत ठडा लगा, पीकर तृप्त हो गया। दूसरे की प्यास नही बुझी । उसे वह पानी गर्म लगा । यह क्यो ? पानी समान होते हुए भी दो व्यक्तियों की प्रतीति और परिणाम मे इतना अन्तर ? इसका कारण यही हो सकता
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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