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________________ १०८ जैनधर्म . जीवन और जगत् पर भी विचार कर लें। अनेकान्त वस्तु का स्वभाव है। सर्वज्ञो के अनतज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति है। अनत धर्मात्मक वस्तु का कथन बिना दृष्टि-बिन्दुओ के सभव नही । वस्तु के अनत धर्मों के प्रतिपादन की क्षमता भी भाषा जगत् के किसी भी शब्द मे नही है। अत 'स्यात्' शब्द के माध्यम से सत्य को सापेक्ष प्रतिपादित करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है । अनेकान्त सापेक्ष जीवन-शैली है और स्याद्वाद प्रतिपादन की पद्धति । अनेकात दर्शन है, उसका व्यक्त रूप स्याद्वाद है । वास्तव मे देखा जाए तो अनेकात और स्याद्वाद आपस मे गहरे जुडे हुए हैं। जुडवा बच्चो की तरह, एक दूसरे के पूरक । अनेकात के बिना स्याद्वाद का जन्म नही, स्याद्वाद के बिना अनेकात हमारे लिये उपयोगी नही । अनेकात को उजागर करने वाला स्याद्वाद - अपेक्षा है अनेकातवाद और स्याद्वाद-इन दोनो का ही वर्तमान समस्याओ के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाए और मानवीय व्यवहार के साथ इस महान् दर्शन को जोडकर जागतिक स्तर पर समन्वय और सहअस्तित्व को प्रतिष्ठित किया जाए।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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