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________________ १०४ जैनधर्म . जीवन और जगत् होता है। प्राचीन भारत मे यह "हाडी"- भोजन-पकाने के पात्र अर्थ मे प्रयुक्त होता था। जैसे- स्थाली पुलाक न्याय । स्थाली का ही अपभ्रश थाली है। दक्षिण भारत में सुहाग का प्रमुख चिह्न है थाली । "मागल्यम्-थाली" यानी पीले धागेवाली सुनहरी पैडिल-जो विवाह-मडप मे पिता वधू के गले मे मगल-सूत्र की भाति पहनाता है । हम जिस क्रिया का प्रयोजन समझते हैं, उसके सिवाय भी उस क्रिया के अगणित प्रयोजन हो सकते हैं । हमने जिस वस्तु को जिस रूप में जाना, समझा है, उसके अतिरिक्त भी उसे समझने के अनेक कोण हो सकते हैं। हमारे ज्ञात अर्थ के सिवाय उसकी अनेक ज्ञेय पर्यायें हो सकती हैं । जिस घटना की हमे जो प्रतीति होती है, उसके सिवाय उसमे अनेक प्रतीतिया अतर्गभित हो सकती हैं। अनेकान्त दृष्टि से ही इन सबमे सामजस्य स्थापित किया जा सकता है । समाधान खोजा जा सकता है। जैन-दर्शन के अनुसार ससार मे अनत जीव हैं। वे अनत स्वभाव के हैं । अनत वस्तुए हैं। उनके अनत पर्याय हैं, अनत परमाणु हैं और मनत परिणमन हैं। अनत जीव, अनत दृश्य पदार्थ और अनन्त परिणमन-यही जागतिक सत्य है। सत्य का स्वरूप सापेक्ष है। अपेक्षा-दष्टि से देखने पर भी गुण-धर्म सत्य है । निरपेक्ष कुछ भी नहीं है । इस सापेक्ष विचार-शैली का नाम ही अनेकान्त है। भगवान् महावीर ने मत्य की उपलब्धि के लिए एक अलौकिक दर्शन प्रस्तुत किया है। उन्होने कहा-वस्तु का एक धर्म ही सत्य नही है, उसके सभी धर्म सत्य हैं । एक दृष्टिकोण से वस्तु का एक धर्म जितना सत्य है, दूसरी दृष्टि से उसका दूसरा धर्म भी उतना ही सत्य है । इस प्रकार अपेक्षाभेद से यह सिद्ध हो जाता है कि वस्तु अनत धर्मात्मक है । __भगवान् महावीर ने भारतीय दर्शन के मौलिक तत्त्वो-आत्मा, शरीर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु, लोक, बधन और मुक्ति का प्रतिपादन अनेकान्त की शैली में किया है । पदार्थ के विभिन्न गुण-धर्मों का विभिन्न दृष्टियो से विश्लेषण कर उन्होने विराट् सत्य की प्रस्तुति दी है। जैन-दर्शन के अनुसार जीव पुद्गल आदि समस्त पदार्थों के स्वरूपनिर्णय के परिप्रेक्ष्य मे उसे कम-से-कम चार दृष्टियो से परखना नितान्त अपेक्षित है । वे दृष्टियां हैं-(१) द्रव्य-दृष्टि, (२) क्षेत्र-दृष्टि, (३) कालदृष्टि (४) भाव-दृष्टि । यहा द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव को समझ लेना भी जरूरी है द्रव्य-गुण समुदाय को द्रव्य कहते हैं । द्रव्य का अर्थ है वस्तु ।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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