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________________ ज़ाहिर होनी है कि रहोभ्याख्यान का 'रहः' स्त्री पुरुष में ही कैद नहीं हैं और न विवाह का 'वरण' कन्या में ही केद हे । इसीलिये श्लोक वार्तिक में विवाह की परिभाषा में 'कन्या'शब्द का उल्लंख ही नहीं है। इस नारासी बात को समझाने के लिये हमें इतनी पंक्तियाँ लिखनी पड़ी है। पर करें क्या ? ये श्राक्ष पक लोग इतना भी नहीं समझते कि किस ग्रन्थ की लेखन शैली किस ढङ्ग की है। ये लोग 'धर्म-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध' चिल्लाने में जितना समय बरबाद करते हैं उतना अगर शास्त्रों के मनन करने में लगावे तो योग्यता प्राप्त होने के साथ सत्य की प्राप्ति भी हो । परन्तु इन्हें सत्य की परवाह हो तब तो ! आशेप-(श्री) जो देने के अधिकारी हैं वे सब उपलक्षणसे पितृ सदृश है । उनके समान कन्याके स्थान में विधवा जोड़ना सर्वथा असंगत हैं। क्योकि विधवा के दान करने का अधिकार किसी को नहीं है। अगर पुरुप किसी के नाम वसीयत कर जाय तो यह कल्पना स्थान पा सकती हैं । पिता ने कन्या जामाता को दी, अगर जामाता फिर किसी दूसरे पुरुषको देना चाहे तो नहीं देसकता है: फिर दुमग कौन दे सकता है ? समाधान-जिस प्रकार देने के अधिकारी उपलक्षण से पितृ सदृश है उसी प्रकार विवाह योग्य सभी स्त्रियाँ कुमारी सदृश हैं: इस में न कोई विषमता है न असङ्गतता। प्राक्ष पक का हृदय इतना पतित है कि वह स्त्रियों को गाय, भैस श्रादि की तरह सम्पत्ति या देन लेने की चीज़ समझता है। इसीलिए वह लिखता है "कन्या पिता की है, पिता न हो तो जो कुटुम्बी हो वेही उसके स्वामी हैं" लेकिन जैन शास्त्रों के अनुसार पिता वगैरह उसके संरक्षक है--स्वामी नहीं। स्त्री कोई सम्पत्ति नहीं
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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