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________________ ( ५२ ) था। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर ने इसका भी उपदेश दिया ! मुनियों के लिये कमंडलु रखना आवश्यक है, परन्नु तीर्थङ्कर और सप्त ऋद्धि वाले कमंडलु नहीं रखते । मतलब यह कि व्यवहार धर्म का पालन आवश्यकता के अनुसार किया जाता है उसका कोई निश्चित रूप नहीं है। श्रावकाचार में तो यह अन्तर और भी अधिक हो जाता है । छटवी प्रतिमा में कोई रात्रि भोजन का त्याग बताते है तो कोई दिनमें स्त्री सेवन का त्याग ! अष्ट मूलगुण तो समय समय पर बदलते ही रहे हैं और वे इस समय चार तरह के पाये जाते हैं। किसी के मतसे वेश्यासेवी भी ब्रह्मचर्याणुव्रती हो सकता है किसी के मत से नहीं ! जो लोग यह समझते हैं कि निश्चयधर्म एक है इसलिये व्यवहारधर्म भी एक होना चाहिये, उन्हें उपयुक्त विवेचन पर ध्यान देकर अपनी बुद्धि को सत्यमार्ग पर लाना आवश्यक है । कई लोग कहते हैं- "ऐसा कोई सामाजिक नियम अथवा क्रिया नहीं है जो धर्म से शुन्य होः सभी के साथ धर्म का सम्बन्ध है अन्यथा धर्मशन्य क्रिया अधर्म ठहरेगी" । यह कहना बिलकुल ठीक है । परन्तु जब येही लोग कहने लगते हैं कि सामाजिक नियम तो बदल सकते हैं, परन्तु व्यवहार धर्म नहीं बदल सकता तब इनकी अक्ल पर हँसी पाने लगती है। वे व्यवहार धर्म के बदलने से निश्चय धर्म बदलने की बात कहके अपनी नासमझी तो प्रगट करते हैं, किन्तु धर्मानुकल सामाजिक नियम बदलने की बात स्वीकार करके भी धर्म में परिवर्तन नहीं मानते । ऐसी समझदारी तो अवश्य ही अजायबघर में रखने लायक है।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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