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________________ वर्ष की डाकरियां सोलह शृंगारकरतो हैं और दिन में छत्तीस मर्तवा कांच देख २ कर चमकाली टिकियां लगाती है, यांवले नेवरी को झनकार मचाता हुई इधर उधर फुदक २ कर उठती बैठती है, मेंहदी स अपने हाथ पांव रचाती है, मस्तक को गोटा और लेंस आदि से सजाती है, फूलदार कांचली पहनती है, इत्र में सनी हुई बहुत बढ़िया पोशाक से अपन श्राप की सजाती हैं और रात को छत पर दप्त बीस स्त्रियों में बैठकर गहरे शृंगार रस के गीत गाती हैं। कुछ ही देर बाद बाजार से बढ़ लखद पति के मिठाई लेकर आते ही वह रंगीली सजीली बुढ़िया चुपके से दहने दाखिल हो जाती है, लेकिन वह आकाश का पटकी भोर धरती की झेळी हुई अभागिनी विधवा पुत्र धृ इस हिन्दू समाज को गालियां देकर फटी हुई चटाई पर जा पड़ती है। उस विचारी का समस्त सुख और समस्त मानन्द हमेशा के लिये इस संसार से उट गया है। हा! फं क कर पांव रखते हुये भी उसका स कर बोलना और भूल कर कमी २ अच्छी सी चीज़ खाने पीने या पहनने आदन के लिये मांग लेना मा सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है। केसा पाशविक दृष्य है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी जाति पर होने वाले पुरुष जाति के अत्याचार एक निप्पक्ष जज के इजलास में बिलकुल भी क्षमा करने के योग्य नहीं है। अगर वास्तव में कोई ईश्वर नाम की शकि इस दुनियां में है मौरं वह शक्ति निष्पक्ष होकर स्त्री बनाम पुरुष के मुक्रम को समाप्त करने में दिलचस्पी लेगी तो उसे निस्संदेहपुरुष जातिको एक दम फ्रर्द जुर्म सुनाकर सख्त से सख्त सजा का फैसला सुनाना पड़ेगा। विचारी विधवाएँ प्रखण्ड सन्यास की मूर्तियां बन कर अपने चारित्र को प्रादर्श एवं निर्मल रखती हुई चुपचाप बैठी रहना चाहती
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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