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________________ बात है, परन्तु छेदोपस्थान का विधान न होना दूसरी बात है। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं। परन्तु इन सबके उत्तरमें यही कहा जासकता है कि जिस व्यक्ति में जितनी योग्यता होती है या जिस यग में जैसे व्यक्तियों की बहुलता रहती है व्यवहार धर्म का रूपभी वैसा ही होता है । हाँ, व्यवहार धर्म हो कैसा भी, किंतु उस की दिशा निश्चय धम्मे की ओर रहती है। अगर निश्चय साधकता सामान्य की दृष्टिसे व्यवहार धर्म एक कहाजाय तो किसीको विवाद नहीं है परन्तु वाह्यरूप की दृष्टि से व्यवहार धर्म में विविधता अवश्य होगी। अब इस कसौटी पर हम विधवाविवाह को कसते हैं। धार्मिक दृष्टि से विवाह का प्रयोजन यह है कि मनुष्य की कामवासना सीमित हो जाय । इस प्रयोजनकी सिद्धि कुमारी विवाह से भी है और विधवाविवाह से भी है। निश्चय साधकता दोनों में एक समान है । अगर दोनों प्राक्षेपक निश्चय साधकता सामान्य को एि में रखकर व्यवहार धर्म को एक तरह का माने तो कुमागविवाह और विधवाविवाह दोनों एक सरीखे ही रहेंगे। दोनों की समानता के विषय में हम पहिलं भी बहुत कुछ कह चुके हैं। माक्षेप ( ख )-जो लोग अजितनाथसे लेकर पार्श्वनाथ तक के शासन में छेदोपस्थापनाका प्रभाव बतलाते हैं उनकी विद्वत्ता दयनीय है। (विद्यानन्द) समाधान-मेरी विद्वत्ता पर दया न कीजिये, दया कीजिये उन बट्टकर स्वामी की विद्वत्ता पर जिनने मूलाचारमें यह बात लिखी है। देखिये
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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