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________________ ( १६९) वध्वा सहैव कुर्वीत निवासं श्वशुरालये। चतर्थदिनमत्रत्र कंचिदेवं वदन्ति हि ॥ वर, अधू के साथ ससुराल में हो निवास करे परन्तु कोई काई कहते हैं कि चौथे दिन तक ही निवास करे। चतर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दापा यदि वग्म्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यात् पितान्यम् विबुधाः ॥ ११-१७४ चौथी गात्रि को यदि वरके दोष (नपुंसकत्वादि) मालूम हो जायँ ना पिता को चाहिये कि दो हुई-विवाही हुई-कन्या फिर से किसी दूसरे वर का दे दे अर्थात् उस का पुनर्विवाह करदे ऐसा बुद्धिमाना ने कहा है। प्रचरैक्पादिदोषाः म्युः पतिसगादधा यदि । दत्तामपिहरेद्दद्यादन्यस्मा इति कंचन ॥ ११-१७५ अगर पतिमाम के बाद मालूम पड़े कि पनि पति के प्रवर गात्रादि की एकता है तो पिता अपनी दी हुई कन्या किमी दूसरे को दद। कलो तु पुनरुद्वाहं वर्जयदिति गालवः। कम्मिंश्चिद्देश इच्छन्ति न तु सर्वत्र कंचन ॥११-१७६ परन्तु गालव ऋषि कहने हैं कि कलिकाल में पुनर्विवाह न करें और कोई काई यह चाहते हैं कि कहीं कहीं पुनर्विवाह किया जाय सब जगह न किया जाय । दक्षिण प्रांत में पुनर्विवाहका रिवाज होने से भट्टारक जी ने उस प्रान्त के लिये यह छट चाही है। यों तो उननं पुनर्विवाह को आवश्यक माना है परन्तु यदि दुमरे प्रांत के सोग पुनर्विवाहन चलाना चाहे तो भट्टारक जी किसी किसी प्रान्त के लिये खासकर दक्षिण प्रान्त के लिये प्रावश्यक ममझते हैं। पाठक देखें इन श्लोकों में स्त्रीपुनर्विवाह का कैसा जबर्दम्त समर्थन है । यहाँ पर यह कहना कि वह पुरुषों के पुनर्विवाह
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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