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________________ ( १८६) तरह की यानियाँ होती हैं। इमलिये योनि या कुस्तकी जातियाँ कहदेना बिलकुल मुर्खता है। शास्त्रकारों ने भी योनिभेद और कुलभेदों को जानि नहीं कहा । नार्गकयों में जातिभेद नहीं है फिर भी लाखा यानियाँ और मनुष्यों को अपेक्षा दुगुने से भी अधिक कुल है। आक्षेप (ग)-कालकी पलटनाके अनुमार जातियों की संज्ञाएँ भी बदल गई । (विद्यानन्द ) ममाधान-नो पुगने नाम मिलना चाहिये या अन्य किसी रूप में इनका उल्लंब होना चाहिये । प्राप(घ)-जाति एक शब्द है, उसका वाच्य प्रगर गुणरूप है नो अनादि अनन्त है। अगर पर्यायरूप है ना धोव्य क्या है। जो ध्रौव्य ह वही जानियों का जीवन है। (विद्यानन्द) ममाधान-महशता को जाति कहते हैं । सरशता गुग्ण पर्याय आदि सभी में हो सकती हैं। दव्य गुण की सरशना अनादि है और पर्याय की सरशता मादि है । वर्तमान जानियाँ (जिनमें विवाह की चर्चा है)ना न गुणरूप हैं न पर्याया। व ना बिलकुल कल्पित हैं। नामनिक्षा में अधिक इनका महन्त्र नहीं है। यदि इनका पर्यायरूप माना जाय तो इनका मुल जीव मानना पड़ेगा । इमलिये भापक के शब्दानुसार 'जीवन्त्र जानि कहलायगी। जीव को एक जाति मान कर उमका पुद्गल धर्म अधर्म में विवाह करने का निषेध किया जाय ना कोई आपत्ति नहीं हैं। जिम प्रकार कलकनिया, बंगाली, बिहारी, लखनवी, कानपुरी मादि में अनादित्व नहीं है उसी प्रकार ये जातियाँ हैं। यदि माक्षेपक का दल इन उपजानियों को अनादि
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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