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________________ (६६ ) है कि लडका बाप की सम्पत्ति का मालिक नहीं होता। यह कानून है परन्तु न्याय नहीं । प्रजा में फूट डालकर मनमाना शासन करने की पालिसी, नीति है, परन्तु यह न्याय नहीं है। इसी तरह मिलजुल कर पञ्चों में गहिय, प्राण आँय साँची नहीं कहिय'' की नीति है परन्तु यह न्याय नहीं है। योगप में डयल का रिवाज था और कहीं कहीं अब भी है, परन्तु यह न्याय नहीं कहा जा सकता, ज्योकि इसमें सबल का हो न्याय कहलाता है। जिसकी लाठी उसकी भेस' यह भी एक नीति हे परन्तु न्याय नहीं । इमलिय नीतिवाक्य का उद्धरण देकर न्यायाचितता का विरोध करना व्यर्थ है। दुमग बात यह है कि चाणक्य ने खुद स्त्रियों के पुनविवाह के कानून बनाये है जिनका उल्लेख २७ वे प्रश्न में किया गया था । इस लख में भी आगे किया जायगा । यहाँ सिफ एक वाक्य उद्धत किया जाता है-'कुटुम्बद्धिलाप वा सुखावस्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देन जीवितार्थम्' । अर्थात् कुटुम्ब की सम्पत्ति का नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुबाँधवा स छाड़े जाने पर कोई स्त्री, जीवननिर्वाह के लिय अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। चाणक्यनीति का उल्लेख करने वाला ज़रा इम वाक्य पर भी विचार करे । साथ ही यह भी ख्याल में रक्ख कि ऐसे ऐसे दर्जनों वाक्य चाण. क्य ने लिखे है। जब हम दोनों वाक्यों का ममन्यय करते है तब चाणक्यनीति के श्लोक से पुनर्विवाह का ज़रा भी विरोध नहीं होता। उस श्लोक सं इतना ही मालूम होता है कि बाप को चाहिये कि वह अपनी पुत्री एक ही बार देव । विधवा होने पर या कुटुम्बियों के नाश होने पर देने की ज़रूरत नहीं है । उस समय तक उसे इतना अनुभव हो जाता है कि वह स्वयं अपना पुनर्विवाह कर सकती है। इसलिये पिता को
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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