SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) क्योंकि वे लोग कहते हैं कि व्यभिचार भले ही करलो, परन्तु विधवाविवाह मन कगे ! विधवाविवाह करने के पहिले पंडित उदयलाल जी से एक बुजुर्ग पण्डित जी ने कहा था कि-"तुम उसे स्त्री के रूप में यों ही रखतो, उसके साथ विवाह क्यों करते हो ?" श्राप के सहयोगी विद्यानन्द जी ने पाँचवें प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि'यद्यपि कुशीला भ्र णहत्या करती है किन्तु फिर भी जिनमार्ग से भय खाती है। उसमें स्वाभिमान लजा है। इसलिये वह विधवाविवाहित या वेश्या से अच्छी है"-क्या अब भी स्थितिपालक लोग व्यभिचारपोपकना का कलंक छिपा सकते हैं? उस सरकार को क्या कहा जाय जो चोगे की प्रशंसा करती है और व्यापारियों की निन्दा ? आक्षेप ( ग )-यदि किसी को स्त्री नहीं मिलती तो क्या दया धर्म के नाम पर दूसरे दे दें ? विधवाविवाह के प्रचार हो जाने पर भी सभी पुरुषों को स्त्रियाँ न मिल जायँगो तो क्या स्त्री वाले लोग एक एक घण्टे को स्त्रियाँ दे देंगे। ममाधान-सुधारकों के धर्मानुसार स्त्रियों का देना लेना नहीं बन सकता, क्योंकि स्त्रियाँ सम्पत्ति नहीं हैं। हाँ, स्थितिपालक पण्डितों के मतानुसार घटे दो घंटे या महीनों वर्षों के लिये स्त्री दी जासकती है, क्योंकि उनके मतानुसार वह देने लेने की वस्तु है, भोज्य है, सम्पत्ति है । पुरुष की इच्छा के अनुसार नाचने के सिवाय उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। खैर, लोगों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे स्त्रियाँ देदें. परन्तु उनका इतना कर्तव्य अवश्य है कि कोई पुरुष स्त्री प्राप्त करता हो या कोई स्त्री पनि प्राप्त करती हो तो उनके मार्ग में रोड़े न अटकावे । यह कहना कि "विधवा अपने भाग्योदय से पतिहीन हुई; कोई क्या करे" मूर्खना और पक्षपात है । भाग्यो.
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy