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________________ ( ६० ) लिये स्त्री लाता है ? या पण्डितों के वेद विचार के अनु सार योनि-पूजा के लिये लाता है ? क्या यह इन्द्रिय-विषय नहीं है ? क्या विधवाविवाह में ही अनन्त इन्द्रिय-विषय एकत्रित हो गये हैं? क्या तुम्हारा जैनधर्म यही कहता है कि पुरुष तो मनमाने भोग भोगे, मनमाने विवाह करें, उससे वीतरागता को धक्का नहीं लगना, परन्तु विधवाविवाह से लग जाता है ? इसी को क्या "छोड़ो छोड़ो की धुन " कहते हैं ? आक्षेप (छ) - कुशीला अपने पापों को मार्ग-प्रेम के कारण छिपानी है | 'वह भ्रूणहत्या करती है फिर भी विवाहित विधवा या वेश्या से अच्छी है । ( विद्यानन्द ) समाधान- - अगर मार्ग-प्रेम होता तो गुप्त पाप क्यों करती ? भ्रणहत्याएँ क्यों करती ? क्या इनसे जिनमार्ग दुषित नहीं होता ? या ये भी जैनमार्ग के श्रङ्ग हैं ? चोर छिपाकर धन हरण करता है, यह भी मार्गप्रेम कहलाया । अनेक धर्मधुरन्धर लौंडेबाज़ी करते हैं, परस्त्री सेवन करते हैं. यह भी मार्गप्रेम का ही फल समझना चाहिये ! मतलब यह कि जो मनुष्य समाज को जितना अधिक धोखा देकर पाप कर लेता है वह उतना ही अधिक मार्गप्रेमी कहलाया ! वाहरे मार्ग ! और बाहरे मार्गप्रेमी ! व्यभिचारिणी स्त्री वेश्या क्यों नहीं बनजाती ? इसका उत्तर यह है कि वेश्याजीवन सिर्फ व्यभिचार से ही नहीं श्राजाता | उसके लिये अनेक कलाएँ चाहिये, जिनका कि दुरुपयोग किया जा सके अथवा जिन कलाओं के जाल में अनेक शिकार फँसाए जासकें । कुछ दुःसाहस भी चाहिये, कुछ निमित्त भी चाहिये, कुछ स्वावलम्बन और निर्भयता भी चाहिये। जिनमें ये बातें होती हैं वे वेश्याएँ बन ही जाती है । आज जो भारतवर्ष में लाखों वेश्यायें पाई जाती हैं
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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