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________________ ( ५० ) दीक्षिता बीका अपने पति के साथ पुनर्विवाह कैसे हो सकेगा, क्योंकि श्राक्ष पक कन्या का ही विवाह मानना है। अाप (थ)-जैनाचार्यों की सम्पूर्ण कथनी नय विवक्षा पर है। उन्होंने (?) विश्वलोचन में "कन्या कुमारिका नार्यः" लिखा है । यद्यपि यह बिल्कुल सीधा सादा है और इसमें नय प्रमाण वागे की कुछ अावश्यकता नहीं है फिर भी नीतिकार न कहा है-'अर्थी दापं न पश्यति'। जो हो ! जानि अपेक्षा (गशि भदोपधाभिदा ) नारि (?) के माथ कन्या, कुमारी का प्रयोग किया गया है। हमारे अर्थ को सिद्ध करने वाला अंश 'जगन्' में बड़े (?) बारीक टाइश में छापा गया है । इतना छल : कुछ खोफ है ? समाधान--काष के स्त्री बाची कन्या शब्द का जब कुछ भी खण्डन न हो मका ता उपर्यन प्रलाप किया गया है । आक्षपक का कहना है कि कन्या और स्त्री की जानि एक है. इसलिय दानों को माथ लिख दिया है। ठीक है, मगर भार्या और भगिनी भी ना सजातीय हे, बाप और बेटा भी नो मजानीय है, नो इन सब के विषय में घुटाला कर देना चाहिये । इस बकवाद में प्राक्षेपक ने अपने कोष देखने की कला के अज्ञान का पुनः प्रदर्शन किया है। विश्वलोचन, एक अनेकार्थ कोश है। अन्य काशों के समान उसमें पर्यायवाची शब्दों की लाइन नडी नहीं की जाती है। उसमें तो यह बताया जाता है कि. एक शब्द के जुदे जुद कितने अर्थ है। कन्या शब्दके कुमारी, नारी, गशिभेद आदि जुद जुद अर्थ हैं। अगर श्राक्षेपक को काश देखने का ज़ग भी ज्ञान होता तो वह इननी भूल न करता। टाइप की बात तो बड़ी विचित्र है । लेखक, जिस बान पर पाठकों का ध्यान ज़्यादः आकर्षित करना चाहता है उसे वह अन्डर लाइन कर देना है और प्रेस वाले उसे ब्लाक
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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