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________________ ( ३८ ) आठ तरह का हो सकता है उसी प्रकार विधवाविवाह भी पाठ तरह का हो सकता है। आक्षेप (झ)-सम्यग्दृष्टि जीव में राग द्वेष की उत्कटता का क्षयोपशम हो गया है। उस के वन निमय न मही. परन्तु म्वरूपाचरण चारित्र ना है, जो संमार से भयभीत. मद्यमांस आदि से विरत विधवाविवाह आदि गग-प्रवृति से बचाता है । यदि उस के स्वरूपाचरण चारित्र न माना जाय तो वह दुनियाँ भर के सभी गेद्र कर्म करके भी सम्यक्त्वी बना रहेगा। समाधान-म्वरूपाचरण नो नागकियों के भी होता है, पाँचों पाप करने वालों के भी होता है, कृष्णलेण्या वालों के भी होता है। तब विधवाविवाह से ही उस का क्या विरोध है. ! सम्यग्दर्शन, भेद विज्ञान, म्वरूपाचरण चारित्र, ये सहचर हैं ? इसलिये जो बात एक के लिए कही गई है वही तीनों के लिये समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी के उदय क्षय से स्व. रूपाचरण होता है । इस विषय में लेख के प्रारम्भ में श्राप नम्बर 'अ' का समाधान देखना चाहिये। आक्षेप (अ)-मानवे नरक में सम्यक्त्व नट न होने की बात आप ने कहाँ से लिखी ? समाधान-इसका समाधान पहिले कर चुके हैं। देखा आक्षेप नम्बर 'इ' का समाधान । प्राक्षेप (ट)-सम्यग्दृष्टि जीव पञ्च पापोपसेवी नहीं होता, किन्तु उपभोगी होता है अर्थात् उसको रुचिपूर्वक पञ्च पापों में प्रवृत्ति नहीं होती । “पाप तो सदा सर्वथा घोर पाप. बन्धन का ही कारण है । फिर तो सम्यक्त्वी को भी घोर पाप बन्ध सिद्ध हो जायगा और सम्यत्तवीको बन्धका होना कहने पर अमृतचन्द्र मूरि के "जिस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि है उस दृष्टि से बन्ध नहीं होता" इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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