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________________ ( ३४ ) हैं,अर्थात् एक ही स्त्री रखते हैं । यह नियम उम समय के लिये था जब अनुलोम विवाह की पृथा जोर पर थी। उच्चवर्णी, शूद्र की कन्याएँ लेते थे, लेकिन शुद्रों को देते न थे। ऐसी हालत में शुद्र पुरुष भी अगर बहुपत्नी रखने लगते नब तो शुद्रों के लिये कन्याएँ मिलना भी मुश्किल हो जाता। इलिये उन्हें अनेक पत्नी रखने की मनाई की गई। जो शुद्र अनेक स्त्रियाँ रखते थे व असचन्द्र कहे जाते थे। एक प्रकार से यह नियम भङ्ग करने का दगड था। आक्षेपक ने स्त्रियों के पुनर्विवाह न करने की बात न मालम कहाँ से खींच ली? उस वाक्य की संस्कृत टीका में आक्षेपक की यह चालाकी म्पट हो जाती है टीका-“य सच्छद्राः शोभनद्रा भवन्ति ते सकृत्परि. ण्यनाः एकवारं कृतविवाहाः, द्वितीयं न कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा च हारीतः द्विभार्योयात्रशूद्रः म्याद्वृषालः स हिवि श्रुतः । महत्वं तम्य नो भावि शुद्र जाति समुद्भां ।” अर्थात्-जो अच्छे शूद्र होते हैं वे एक ही बार विवाह करते हैं, दूसग नहीं करते हैं । यही बात कही भी है कि दो पत्नी रखने वाला शूद्र वृषाल कहलाता है--उसे शूद्र जाति का महत्त्व प्राप्त नहीं होता। 'शूद्रों को बहुत पत्नी न रखना चाहिये', एस अर्थवाल वाक्य का 'किसी को विधवाविवाह न करना चाहिये' ऐसा अर्थ करना सगसर धोखेबाज़ी है। यह नहीं कहा जा सकता कि आक्षेपक को इसका पता नहीं है, क्योंकि त्रिवर्णाचार की परीक्षा में श्रीयन जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इसका ग्वूब खुलासा किया है। इस प्रकार पहिले श्रापक के समस्त श्राप बिलकुल निर्बल हैं। अब दूसरे प्रक्षेपक के धानेपों पर विचार किया जाता है।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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