SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३० ) पत्थरों के ढेर में से या पहाड़ में से किसी पत्थर की जिनेन्द्र मूर्ति बना लेना अनुचित हो जायगा? स्थापना में सिर्फ इतना ही देखना चाहिये कि वर्तमान में यह पत्थर प्राकारान्तरसंक्रान्त तो नहीं है। पहिले किस आकारमें था, इसके विचार की कोई ज़रूरत नहीं है। इसी प्रकार वर्तमान में जो किसी दूसरे पुरुष कौस्त्री है उसे स्वस्त्री नहीं बनाना चाहिये; जैसै कितिब्बत में अनेक पुरुष एक ही स्त्री को अपनी अपनी पत्नी बनाते हैं या जैसे कि हिंदू शास्त्रों में द्रोपदी के विषय में प्रसिद्ध है । परन्त जो स्त्री विधवा होगई है वह तो कुमारी के समान किसी की पत्नी नही है । वह आकारान्तरसंकान्त अर्थात् किसी की पत्नी थी ज़रूर, परन्तु अब नहीं है। इसलिये उसमें स्वपत्नीत्वका सङ्कल्प अनु. चित नहीं है । आक्षेपक ने प्रकरण को छिपाकर, कन्या शब्दका अर्थ भुलाकर, ज़बरदस्ती भूतकाल के रूपको वर्तमान का रूप देकर या तो खुद धोखा खाया है या दृसगे को धोखा दिया है। प्राचार्य सोमदेवकं वाक्यों से विधवाविवाह का विरोध करना दुःसाहस है । जो प्राचार्य अणुवती को वेश्यासेवन तक को खुलासी देते हैं वे विधवाविवाह का क्या विरोध करेंगे ? बल्कि दूसरी जगह खुद उन्होंने स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में वे लिखते हैं कि-'विकृत पत्यू. ढापि पुनर्विवाहमहतीति स्मृतिकाराः' अर्थात् शास्त्रकार कहते हैं कि जिस स्त्री का पति विकारी अर्थात् सदोष हो,वह स्त्री भी पुनर्विवाह की अधिकारिणी है। इस वाक्य के उत्तर में कुछ लोग कहा करते हैं कि यह तो दूसरों की स्मृतियों का हवाला हैसोमदेव जी इससे सहमत नहीं हैं । परन्तु सोमदेव जी अगर सहमत न होते तो उन्हें इस हवाले की ज़रूरत क्या थी ? यदि सोमदेवजी ने विधवाविवाह का खंडन किया होता और खंडन के लिये यह वाक्य लिखा होता तब तो कह सकते थे कि वे
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy