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________________ पूर्व प्रकाश मनुष्य चिंतनशील प्राणी है। उसकी प्रवृत्ति खोजी रही है। उसने सदा से जीव और जगत, चित् और अचित्, सत्ता और परमसत्ता के विषय में चिंतन किया है। जो कुछ भी उसके तर्क बुद्धि और अंतर्दृष्टि से अधिगत हुआ वही दर्शन है। दर्शन का अर्थ है 'दिव्यदृष्टि'। जीवन के दुःखों को दूर करना ही दर्शन का मूल उद्देश्य है रतीय दर्शनों के अनुसार केवल सत्य की खोज और उनका ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है किंतु उसे आत्मसात् कर तदनुरूप जीना भी आवश्यक है। यही कारण है कि भारत में धर्म और दर्शन सहचर और सहगामी रहे हैं। दर्शन सत्ता की मीमांसा करता है और उसके स्वरूप को तर्क एवं विचार से ग्रहण करता है, जिससे कि मोक्ष की उपलब्धि हो । धर्म उस तत्त्व को प्राप्त करने का व्यावहारिक उपाय है। दर्शन हमें आदर्श लक्ष्य को बताता है, धर्म उसको प्राप्त करने का रास्ता है। दर्शन द्वारा तत्त्व प्रतिपादित होते हैं, धर्म उनका क्रियान्वयन करता है। हेय को छोड़ता है उपादेय को ग्रहण करता है । दर्शन और धर्म दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दर्शन की अनेक धाराएं हैं। उनका वर्गीकरण भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के रूप में किया जा सकता है । जैन दर्शन अध्यात्मवादी दर्शन है। भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का अपना एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह ये चार महान् स्तंभ हैं। जिन पर जैन दर्शन का महाप्रासाद खड़ा है। जैन दर्शन जीवन दर्शन है। यह केवल कमनीय कल्पनाओं के अनंत आकाश में विचरण नहीं करता वरन् उन विमल विचारों को जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रतिफलित करता है। जैन साहित्य का विपुल भंडार है। उसके अधिकांश ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश जैसी प्राचीन भाषाओं में होने से नयी पीढ़ी का उनमें प्रवेश नहीं हो पाता। हिंदी भाषा में भी कुछ सरल और कुछ जटिल ग्रंथों का सृजन हुआ है। उन सभी की अपनी उपयोगिता है। लेकिन भाषागत जटिलता एवं प्रस्तुतिगत कठिनाई के कारण नयी पीढ़ी उनसे पूर्णतया लाभान्वित नहीं हो सकी है। आज की नयी पीढ़ी हर बात को उसकी वैज्ञानिकता एवं युक्तियुक्तता के साथ समझना चाहती है। यदि धर्म और दर्शन जैसे गूढ़ विषयों की भी वैज्ञानिक प्रस्तुति हो तो वह उसके लिए सहजग्राह्य बन सकती है। अतैव आज प्राचीन ग्रंथों की आधुनिक व्याख्या की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से वर्षों से यह भावना थी कि जैन दर्शन की वैज्ञानिकता को रेखांकित करनेवाली पुस्तक लिखी जानी चाहिए। यद्यपि इस प्रकार की कई पुस्तकें लिखी जा चुकी
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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