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________________ 72 / जैन धर्म और दर्शन ज्ञान' कहते हैं। अवधि ज्ञान-बिना इंद्रिय और मन आदि बाह्य पदार्थों की सहायता से जो ज्ञानरूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है, वह अवधि ज्ञान है । यह ज्ञान एक निश्चित अवधि/ सीमा तक ही होता है इसलिए अवधि ज्ञान कहलाता है। मनःपर्यय ज्ञान-अवधिज्ञान की तरह बिना किसी बाह्य आलंबन के दूसरे के मन में रहने वाले रूपी-पदार्थों को जानने वाला ज्ञान मनःपर्यय ज्ञान है। मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता है1. मत्याज्ञान-मिथ्या दर्शन से संयुक्त मति ज्ञान ही मत्याज्ञान है 2. श्रुताज्ञान-मिथ्यादर्शन से सयुक्त श्रुतज्ञान ही श्रुताज्ञान है। 3. विभंगज्ञान-मिथ्या दर्शन से संयुक्त अवधि ज्ञान ही विभंग ज्ञान है। ज्ञान के मिथ्यापन और सम्यक्पन का आधार विषय न होकर ज्ञाता है। जो ज्ञाता मिथ्या श्रद्धा वाला होता है उसका सपूर्ण ज्ञान मिथ्या होता है तथा जिस ज्ञाता की श्रद्धा सम्यक् होती है उसका ज्ञान भी सम्यक् होता है। सम्यक् और मिथ्यात्व का आधार श्रद्धा है बाह्य पदार्थ नहीं। इस प्रकार ज्ञानोपयोग के कुल आठ भेद हो जाते हैं। इनमें से मति और श्रुत को परोक्ष तथा शेष तीन को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। इन पांच ज्ञान में प्रथम तीन ज्ञान विपर्यय भी होते हैं। इस प्रकार दो परोक्ष, तीन प्रत्यक्ष और तीन विपरीत मिलाकर ज्ञानोपयोग के कुल आठ भेद हुए। दर्शनापयोग-ज्ञानोपयोग की तरह दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का है-स्वभाव दर्शन और विभाव दर्शन । “स्वभाव दर्शन" आत्मा का स्वभाविक उपयोग है। स्वभाव ज्ञान की तरह यह भी प्रत्यक्ष व पूर्ण होता है । इसे केवल दर्शन कहते हैं। विभाव दर्शन तीन प्रकार का होता है-चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, और अवधि-दर्शन । चक्षु-दर्शन-चक्षु इद्रिय से होने वाला निराकार और निर्विकल्पक बोध चक्षु दर्शन है। चक्षु इद्रिय की प्रधानता होने के कारण चक्षु-दर्शन नामक स्वतंत्र भेद है। __ अचक्षु-दर्शन-चक्षु इद्रिय के अतिरिक्त शेष इंद्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है, वह अचक्षु-दर्शन है। अवधि-दर्शन-अवधि ज्ञान में पूर्ण होने वाला जो दर्शन है, वह अवधि-दर्शन है। दर्शनोपयोग सामान्य मात्र को ग्रहण करता है। इसलिए वह सम्यक् और मिथ्या नहीं हो सकता । सविकल्प ज्ञानोपयोग में ही सम्यक् व मिथ्यात्व होता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। अतः अलग से श्रुतदर्शन नही होता तथा मनः पर्यय ज्ञान मनोनिमित्तिक होने के कारण पृथक रूप से मनःपर्यय दर्शन भी नहीं होता। छद्मस्थ जीवों को दर्शन और ज्ञान क्रमशः होता है तथा केवल ज्ञानियों को ज्ञान और दर्शन युगपत होता है। उपर्युक्त चार प्रकार का दर्शन और आठ प्रकार का ज्ञान जीव का सामान्य लक्षण है। 1 (अ)प का अम च 41 (ब) धवला 1/358 2 इस गा 3 नि सा म 1314
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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