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________________ तत्त्व एवं द्रव्य/63 गुण और पर्याय गुण पदार्थ में रहने वाले उस अंग का नाम है जो उसमें सर्वदा रहता है तथा सर्वांश में व्याप्त रहने के कारण सर्वत्र भी रहता है। जैसे पूर्वोक्त उदाहरण में दिए गए आम में रहने वाले उसके स्पर्शादि गुण उसमें सदा रहते हैं तथा वे सर्वाश में व्याप्त हैं। गुणों में होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहते हैं। गुण पदार्थ में सदा रहते हैं, इसलिए इन्हें सहभावी या सहवर्ती भी कहते हैं। तथा पर्याय क्षणक्षयी होती हैं, ये तात्कालिक ही होती हैं, एक काल में एक ही होती हैं इस वजह से क्रम से आने के कारण इन्हें क्रमवर्ती क्रम भावी भी कहते हैं। गुण त्रैकालिक होते हैं, पर्यायें तात्कालिक होती हैं। गुण और पर्याय में इतना ही अंतर है पर्याय के भेद पर्यायें दो प्रकार की होती हैं-द्रव्य पर्याय और गुण-पर्याय अथवा व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय।' दोनों शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार की होती हैं। एक गुण को एक समयवर्ती पर्याय को गुण-पर्याय कहते हैं तथा अनेक गुणों के एक समयवर्ती पर्यायों के समूह को द्रव्य पर्याय कहते हैं। जैसे आम का खट्टापन और मीठापन गुण पर्याय हैं क्योंकि इसमें एक गुण की मुख्यता है तथा आम का कच्चापन और पक्कापन द्रव्य पर्याय हैं क्योंकि यह आम के सभी गुणों के सामुदायिक परिणमन का फल है। अथवा द्रव्य के आकार या संस्थान संबंधी पर्याय को द्रव्य पर्याय तथा उससे अतिरिक्त अन्य गुणों के पर्याय को गुण पर्याय कहते हैं । द्रव्य और गुण पर्याय का यह भी लक्षण पाया जाता है। गुण-पर्याय उस गुण की एक समय की अभिव्यक्ति है और गुण उसकी त्रिकालगत अभिव्यक्तियों का समूह है। उसी प्रकार त्रिकालवर्ती समस्त गुणों का समूह द्रव्य है और उन सकल गुणों के एक समय के पृथक्-पृथक् पर्यायों के समूह का नाम द्रव्य पर्याय है। गुण-पर्याय तथा गुण एवं द्रव्य-पोय तथा द्रव्य में यही अतर है। ____ अर्थ व व्यंजन पर्याय का लक्षण भिन्न प्रकार से भी किया जाता है। द्रव्य में होने वाले प्रतिक्षणवर्ती परिवर्तन को अर्थ पर्याय तथा इन परिवर्तन के फलस्वरूप दिखनेवाले स्थूल परिवर्तन को व्यंजन-पर्याय कहते हैं। प्रत्येक स्थूल परिणमन किन्हीं सूक्ष्म परिणमनों का ही फल है जो कि सत्तर वर्षीय वृद्ध के उदाहरण से स्पष्ट है। दोनों प्रकार की पर्याय और शुद्ध अशुद्ध के भेद से दो प्रकार की होती हैं। उसमें शुद्ध द्रव्य की दोनों पर्यायें शुद्ध होती है तथा अशुद्ध द्रव्य की दोनों ही पर्यायें अशुद्ध ही होती हैं। मुक्त जीव तथा शुद्ध परमाणु 1. प. काता व.16 2. नय दर्पण-85 3. नय दर्पण-85 4. (अ) प्रतिसमय परिणतिरूपा अर्थपर्यायाः भण्यन्ते प्र. साज वृ. 1/80 (ब) स्थूला कालातरस्थायी सामान्यज्ञान गोचरः । दृष्टि ग्राह्यस्तु पर्यायो भवेद व्यञ्जन सशक : ॥ भाव सग्रह 377
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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