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________________ तत्त्व एवं द्रव्य/55 इन्हें तत्त्व कहा गया है तथा इनके श्रद्धान को सम्यक् दर्शन । तत्त्व का अर्थ है सारभूत पदार्थ । यह तत् + त्व इन दो शब्दों के मेल से बना है। 'तत्' का अर्थ है 'वह' और 'त्व' का अर्थ है 'पना' । अर्थात् वस्तु का वस्तुपना ही उसका तत्त्व है।' जैसे अग्नि का अग्नित्व, स्वर्ण का स्वर्णत्व, मनुष्य का मनुष्यत्व आदि । 'तत्त्व' शब्द बहुत व्यापक है। यह अपनी समस्त जाति में अनुगत रहता है। जैसे स्वर्णत्व, समस्त स्वर्ण जाति में व्याप्त है । वह एक है भले ही स्वर्ण अलग-अलग हो। उसी प्रकार सभी जीवों का जीवत्व एक है भले ही जीव अनेक हैं। अजीवों का अजीवत्व एक है। इसी प्रकार आस्रवत्व आदि भी एक-एक ही है। जैन दर्शन का सार उक्त सात तत्त्वों मे अन्तर्निहित है। जैन दर्शन में अन्य बातों का ज्ञान भले ही हो या न हो किंतु उक्त सात तत्त्वों का ज्ञान/श्रद्धान अनिवार्य बताया गया है। नके अभाव में भले ही सपूर्ण वाङ्मय का ज्ञान क्यों न हो वह मुक्ति की प्राप्ति नही कर सकता। अगले अध्यायों में हम इनके स्वरूप पर विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। पक्षपातरहित जैनधर्म स्यादवादो वर्तते यस्मिन पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडन किचिद जैन धर्म स उच्यते ॥ जिसमें स्याद का सिद्धांत है किसी प्रकार का पक्षपात नही है, किसी को पीडा न हो ऐसा सिद्धांत जिसमें है, उसे जैन धर्म कहते हैं। अनेकात स्यादवाद अहिसा और अपरिग्रह ये जैन दर्शन के चार आधार स्तभ हैं विचार में अनेकांत, वाणी में स्यात् आचरण में अहिसा और जीवन में अपरिग्रह ये जैन दर्शन के आध्यात्मिक चौखटे के चार कोण हैं। 1 तस्य भावम् तत्वम् । सर्वा, सि6
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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