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________________ तत्त्व स्वरूप दार्शनिक जिज्ञासा मनुष्य के जीवन में जैसे-जैसे समझ विकसित होती जाती है वह जगत् और जीवन के प्रति चिंतनशील होता जाता है । उसके मन में तत्संबंधी अनेक जिज्ञासाएं उभरने लगती हैं यथा 1. यह जो दृश्य जगत् है वस्तुतः वह क्या है ? 2. जीवन में प्रतिक्षण अनुभूत होने वाले सुख-दुःखादिक का कारण क्या है? 3. क्या कोई ऐसी भी गति या स्थिति है जो समस्त दुःखों से परिमुक्त हो? 4. यदि वह स्थिति है तो उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? ये कुछ ऐसी जटिल जिज्ञासाएं हैं जो प्रत्येक तत्त्व जिज्ञासु के मन में उत्पन्न हुआ करती हैं। इनके समाधान में वह यथासंभव अपनी बुद्धि और युक्ति का प्रयोग भी करता है। किंतु वह ज्यों-ज्यों तर्क की गहराइयों में प्रवेश करता है त्यों-त्यों वह उतना ही उलझता जाता है। वह ऐसी किसी स्थिति तक नहीं पहुंच पाता जहां उसे इसका समुचित समाधान मिल सके। तात्विक समाधान जैन दर्शन में उक्त जिज्ञासाओं का समाधान बताते हुए कहा गया है कि यह दृश्य जगत् जड़ और चेतन पदार्थों के संयोग का ही परिणाम है। समस्त चेतन पदार्थ जीव हैं उसके अतिरिक्त दृश्य जड़-जगत् का समग्र विस्तार अजीव है। जीव अपने शुभाशुभ भावों के कारण ही सुख-दुःख का अनुभव करता है। आस्रव के द्वारा कर्मों का आगमन होता है तथा वे ही जीव से बंधकर सुख-दुःख उत्पन्न करते हैं। हमारे समस्त दुःखों का कारण कोई अन्य शक्ति न होकर यह आस्रव और बंध ही है। क्या ऐसी कोई गति या स्थिति है जो सुख-दुःख से परिमुक्त है? जैन दर्शन में इसका समाधान स्वीकारोक्ति में देते हुए कहा गया है कि हां वैसी स्थिति (गति) भी है। वह है 'मोक्ष' जो समस्त सुख-दुःख से परे परम आनंद की अवस्था है। जो व्यक्ति दुःख की निवृत्ति और सुख प्राप्ति का उद्देश्य रखता है उसे मोक्ष को ही अपना ध्येय बनाना चाहिए। __ चौथे प्रश्न का समाधान जैन दर्शन में विस्तार से दिया गया है। इस प्रश्न का समाधान देते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि आस्रव और बंध के कारण सुख-दुःख होते हैं। उनका अभाव संवर और निर्जरा से संभव है। संवर द्वारा कर्मों का आगमन रुकता है तथा
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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