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________________ 274 / जैन धर्म और दर्शन अस्तित्व-नास्तित्व दोनों हैं और इन युगल धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता। अतः वह (घट) अवक्तव्य भी है । अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य-ये तीनों मूल भंग हैं। शेष चार इन्हीं भंगों से निष्पन्न होते हैं । अतः उनका विवेचन अनावश्यक है । सप्तभंगी से घटादि वस्तु समग्र भावाभावात्मक,सामान्य विशेषात्मक,नित्यानित्यात्मक और वाच्यावाच्यात्मक धर्मों का युगपत् कथन संभव है। अनेकांत स्याद्वाद और सप्तभंगी में संबंध यहां पर जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि अनेकांत,स्यादाद और सप्तभंगी इन तीनों में क्या अंतर है। इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि अनेकांत वस्तु है/वाच्य है, स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है/वाचक है और सप्तभंगी स्याद्वाद का साधन है। स्याद्वाद जब अनेकांत रूप वस्तु का कथन करता है तो सप्तभंगी के माध्यम से ही करता है। इसका आश्रय लिये बिना वह उसका निरूपण नहीं कर सकता। इसे और स्पष्टतया समझें की स्याद्वाद स्याद्वादी वक्ता का वचन है। अनेकांत उसके द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ है, और सप्तभंगी उसके प्रतिपादन की शैली, पद्धति या प्रक्रिया है। अतः सप्तभंगी में सात भंगों का समन्वय है इसलिए उसे सप्तभंगी कहा जाता है। इस प्रकार यह स्याद्वाद का संक्षिप्त रूप है। यद्यपि यह विषय अत्यंत व्यापक है और विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है, फिर भी यहां उसका संक्षिप्त स्वरूप दर्शाना ही इष्ट है। इसके विस्तृत विवेचन के लिए जैन न्याय ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए। • • गुरु गरिमा गुरु वचन आपत्तियों में भी पथ प्रदर्शित करते हैं। गुरु के द्वारा दिये गये निर्देश दीपक की तरह हमारे पंथ को आलोकित करते हैं। जिसे गुरुओं द्वारा राह मिल जाती है फिर उसके लिए किसी तरह की परवाह नहीं होती है। यह बात ठीक है कि आंखें हमारी हैं, दृष्टि हमारी है लेकिन उसका उपयोग कैसे करना है ? यह हमें गुरु ही सिखलाते हैं, यही तो गुरु की महिमा है। -आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रवचनों से
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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