SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वाद जब वस्तु तत्त्व ही अनेकानात्मक है तो उसके प्ररूपण के लिए किसी भाषा-शैली को अपनाना भी जरूरी है। स्याद्वाद उसी भाषा-शैली का नाम है जिससे अनेकांत्मक वस्तु तत्त्व का प्ररूपण होता है । प्रायः अनेकांत और स्याद्वाद को पर्यायवाची मान लिया जाता है किंतु दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। अनेकांत ज्ञानात्मक है और स्याद्वाद वचनात्मक अनेकांत और स्याद्वाद में वाच्य वाचक संबंध है । अनेकांत वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक, अनेकांत प्रतिपाद्य है तो स्याद्वाद प्रतिपादक । अतः अनेकांत और स्याद्वाद को पर्यायवाची नहीं कहा जा सकता। हां! अनेकांतवाद और स्याद्वाद को पर्यायवाची कहा जा सकता है। वस्तुतः 'स्याद्वाद' अनेकांतात्मक वस्तु तत्त्व को अभिव्यक्त करने की प्रणाली है । 2 स्याद्वाद का अर्थ 'स्याद्वाद' पद 'स्यात' और 'वाद' इन दो शब्दों के योग से बना है । प्रकृत में स्यात् शब्द अव्ययनिपात है । क्रिया या प्रश्नादि रूप नहीं । इसका अर्थ है कथंचित किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि विशेष से । 'वाद' शब्द का अर्थ है मान्यता, कथन, वचन अथवा प्रतिपादन | जो 'स्यात' का कथन अथवा प्रतिपादन करने वाला है वह स्याद्वाद है। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ हुआ - विभिन्न दृष्टि बिंदुओं से अनेकांतात्मक वस्तु का परस्पर सापेक्ष कथन करने की पद्धति । इसे कथंचितवाद, अपेक्षावाद और सापेक्षवाद भी कहा जा सकता है। 1 स्याद्वाद वस्तु के परस्पर विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए परस्पर मुख्य गौणता के साथ अनेकान्तात्मक वस्तु तत्व का प्रतिपादन करता है। हम यह जान चुके हैं कि वस्तु तत्त्व अनेकांतात्मक है । उसे हम अपने ज्ञान के द्वारा जान तो सकते हैं किंतु वाणी द्वारा उसका एक साथ प्रतिपादन संभव नहीं है। शब्द की एक सीमा होती है। वह एक बार में वस्तु के किसी एक धर्म का ही कथन कर सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चारितः शब्दः एकमेवार्थं गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया शब्द एक ही अर्थ का बोध कराता है 1 वक्ता अपने अभिप्राय को यदि एक ही वस्तु धर्म के साथ प्रकट करता है तो उससे वस्तु 1. स्यादिति अव्ययमनेकांतता द्योतकं ततः स्याद्वाद : अनेकांतवाद इतियावत् । स्याद्वाद मंजरि । 2. अनेकांतत्मकार्थ कथनं स्याद्वादः 3. समयसार स्याद्वाद अधिकार ता. व., पृ. 381
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy