SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सल्लेखना / 257 है, किंतु एक बार मैं अपने अमुक मित्र से मिल लेता तो बहुत अच्छा होता।" इस प्रकार का भाव मित्रानुराग है । सल्लेखनाधारी साधक को इससे भी बचना चाहिए।" "मुझे इस साधना के प्रभाव से आगामी जन्म में विशेष भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त हो,” इस प्रकार का विचार करना निदान है । साधक को इससे भी बचना चाहिए। जीने-मरने की चाह, भय, मित्रों से अनुराग और निदान ये पांचों सल्लेखना को दूषित करने वाले अतिचार हैं।' साधक को इनसे बचना चाहिए। जो एक बार अतिचार रहित होकर सल्लेखनापूर्वक मरण प्राप्त करता है, वह अति शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है। जैन शास्त्रों के अनुसार सल्लेखना - पूर्वक मरण करने वाला साधक या तो उसी भव से मुक्त हो जाता है या एक या दो भव के अंतराल में । ऐसा कहा गया है कि सल्लेखनापूर्वक मरण होने से अधिक से अधिक सात-आठ भवों के अंतर से तो मुक्ति हो ही जाती है। इसीलिए जैन साधना में सल्लेखना को इतना महत्त्व दिया गया है तथा प्रत्येक साधक (श्रावक और मुनि दोनों) को जीवन के अंत में प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया गया है। शूरवीर की अहिंसा राष्ट्र की रक्षा के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं है जो जैनी न कर सकता हो । और युद्धों में अच्छे-अच्छे : जैनियों के पुराण तो युद्धों से भरे पड़े हैं अणुव्रतियों ने भी भाग लिया है। 1 पद्म पुराण में लड़ाई पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णन में निम्नलिखित श्लोक ध्यान देने योग्य है - सम्यग्दर्शन सम्पनः शूरः कश्चिदणुव्रती । पृष्ठतों वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ किसी सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती सिपाही को पीछे से पत्नी और सामने से देव कन्याएं देख रहीं हैं I 1. र क श्रा १५ 2. प्रतिक्रमण सूत्र स्वामी रामभक्त के लेख "जैन धर्म में अहिंसा" से उद्धत. वर्णी अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 31
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy