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________________ 246 / जैन धर्म और दर्शन दोष के हो जाने पर जैन मुनि आत्म निंदापूर्वक उस दोष को निःसंकोच स्वीकार कर पुनः विशुद्ध चारित्र धारण कर लेते हैं। भविष्य में लग सकने वाले दोषों से बचने के लिए अयोग्य वस्तुओं का त्याग करना 'प्रत्याख्यान' है। शरीर के ममत्व का त्यागकर पंचपरमेष्ठियों का स्मरण करना अथवा आत्मस्वरूप में लीन होना'कायोत्सर्ग' है। जैन मुनि प्रतिदिन दोनों समय अर्थात् दिन व रात्रि में इन्हें अवश्य करते हैं। सामायिक आदि जैन मुनि के नित्यकर्म हैं। अस्नान : शरीर से ममत्व रहित होने के कारण वे स्नान भी नहीं करते हैं,न ही किसी प्रकार से अपने शरीर का संस्कार करते हैं। इतना होने पर भी उनके शरीर से किसी प्रकार की दुर्गंध नहीं आती क्योंकि दिगम्बर मुद्रा होने के कारण वायु और धूप से उनके शरीर की शुद्धि होती रहती है। अदन्तधावन : वे दातौन, मंजन आदि से दन्त धावन भी नहीं करते । भोजन करने के समय ही गृहस्थ के यहां मुख शुद्धि कर लेते हैं । भू-शयन जैन मुनि गद्दे, तकिया अथवा अन्य किसी प्रकार की शय्या पर शयन नहीं करते अपितु अपने स्वाध्याय, ध्यान एवं 'पद' विहार जन्य थकान को दूर करने के लिए भूमि, शिला, लकड़ी के पाटे,सूखे घास एवं चटाई आदि पर ही विश्राम करते हैं। स्थिति भोजन-एक भुक्ति : वे भोजन खड़े होकर लेते हैं, वह भी दिन में एक ही बार । जैन मुनि शरीर को एक गाड़ी की तरह समझते हैं । उसके सहारे ही वे अपनी संयम यात्रा को पूर्ण करते हैं । जिस प्रकार गाड़ी को चलाने के लिए उसमें तेल डालना जरूरी है उसी प्रकार शरीर रूपी गाडी को चलाने के लिए वे चौबीस घंटे में एक बार खडे-खडे अपने हाथों को ही पात्र बनाकर गोचरी वृत्ति से आहार करते हैं । गाय जिस प्रकार घास डालने वाले व्यक्ति पर थोड़ी भी नजर न डालकर अपने आहार को लेती है,उसी प्रकार जैन मुनि देवांगनाओं के समान सुन्दा के द्वारा भी भक्तिपूर्वक आहार देने पर निर्मल मनोवृत्ति से भोजन करते हैं । उनकी आहार चर्या को भ्रामरी वृत्ति भी कहते हैं । जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों को पीड़ा पहुंचाए बिना उसके रस को ग्रहण करता है, उसी प्रकार वे भी गृहस्थ के यहां अपने लिए बनाया गया रूखा-सूखा, सरस-विरस, जैसा भी भोजन मिलता है,शांतभावपूर्वक ग्रहण करते हैं। उससे गृहस्थों को किंचित् भी कष्ट नही होता, अपितु जैसे भ्रमरों के मधुर गुंजार से फूल और भी अधिक खिल उठते हैं उसी प्रकार सत् पात्र का लाभ होने से गृहस्थ का हृदय कमल भी खिल उठता है। वह आहार दान की इन घड़ियों को अपने जीवन की सुनहरी घड़ियों में गिनता है, क्योंकि साधु को आहार देने से उसके गृहस्थी के कार्यों से अर्जित समस्त पाप धुल जाते हैं। जैन मुनि दीनतापूर्वक आहार नहीं लेते। गृहस्थ जब श्रद्धा-भक्ति आदि गुणों से युक्त होकर पूर्वकथित 'नवधा भक्ति' पूर्वक उन्हें आहार करने का निवेदन करता है तब वे शुद्ध सात्विक अपनी तपश्चर्य में सहायक आहार,खड़े होकर अपने कर पात्र में ही ग्रहण करते हैं। भोजन के काल में वे किसी भी प्रकार की याचना नहीं करते, बल्कि जिस प्रकार मकान में आग लग जाने पर जिस किसी प्रकार के जल से उसे बुझाने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ द्वारा दी जाने वाली सरस-विरस जिस किसी प्रकार के भोजन को भी समतापूर्वक ग्रहण कर अपने पेट की अग्नि बुझाने का प्रयास करते हैं।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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