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________________ 244 / जैन धर्म और दर्शन स्वामी न हो अथवा जो मुक्त द्वार हो वही ठहरते हैं। जिस स्थान पर वे ठहरते हैं उसमें निजत्व का भाव नही रखते तथा कोई दूसरा आकर उसमें ठहरना चाहे तो रोकते भी नही हैं । भिक्षावृत्ति का उचित ध्यान रखकर आहार ग्रहण करते हैं। तथा अपने उपकरणों में तेरे-मेरे का भाव न रखकर अन्य साधर्मी साधुओं से विवाद नही करते । यह सब अचौर्य व्रत की भावनाए हैं।' ___ ब्रह्मचर्य महावत इस महाव्रत का पालन करने वाले जैन मुनि के लिए यौनाकर्षण से मुक्त होना अनिवार्य है। उसके लिए मन, वचन व काय से यौन विकारों का सेवन करने, कराने तथा अनुमोदन का निषेध है। यही नवकोटि ब्रह्मचर्य या नवकोटिशील कहलाता है। यौनाकाक्षा को समस्त अधर्मों का मूल तथा महादोषों का प्रथम स्थान कहा गया है। इससे अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं। हिसादिक दोषों एव कलह सघर्ष का जन्म होता है। यह सब समझकर जैन मुनि यौनाकाक्षा पर पूर्ण विजय कर लेते है। वे उन सभी भौतिक एव मानसिक परिस्थितियों से दूर रहते हैं जिनसे किचित भी कामोद्दीपन की सभावना हो। ब्रह्मचर्य महाव्रत की दृढता एव सुरक्षा के लिए वे रागपूर्वक स्त्रियों की चर्चा नही करते, न ही उनमें राग बढाने वाली क्थाओं को सुनते हैं। दुर्भावनापूर्वक उनके आगोपागो का अवलोकन भी नही करते । इसी प्रकार पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण भी नही करते तथा गरिष्ठ उत्तेजक और कामोद्दीपक भोज्य पदार्थों का सेवन एव अपने शरीर के सस्कार का भी त्याग करते हैं । ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए यही पाच भावनाए हैं। अपरिग्रह महाव्रत जैन मुनि की परिग्रह का त्याग भी अनिवार्य है। बाह्य पदार्थों का ममत्व मूल्क समह परिग्रह कहलाता है। यह परिग्रह ही हमारे दुख का मूल कारण है। मनुष्य की सारी दौड-धूप परिग्रह के अर्जन, रक्षण और सवर्धन के लिए होती है। बाह्य पदार्थों के प्रति होने वाली आसक्ति ही हमारी अशाति का मूल कारण है। मनुष्य यदि अपने पास तिलतुष मात्र भी कुछ रखता है तो उसके प्रति आसक्ति से रहित नही हो सकता। जिस प्रकार हमारे शरीर में लगी हई एक छोटी-सी फास भी हमारे लिए कष्टकर होती है उसी तरह एक छोटी-सी लगोटी की चाहत भी कैसे पूरे ससार की सृष्टि कर देती है इससे हम पूरी तरह परिचित हैं। इसलिए कहा भी है ___फास तनिक सी तन में साले, चाह लगोटी की दुख भाले। __ इसलिए पूर्णतया निर्द्वन्द और अकिचन रहकर विचरण करने वाले जैन मुनि अपने पास तिलतुष मात्र भी परिग्रह नही रखते। वे अपने शरीर से ममत्व छोडकर नग्न दिगम्बर रूप धारण करते हैं। मात्र अपने सयम की रक्षा के लिए मयूर पखों की बनी पिच्छिका तथा काष्ठ का एक कमडल रखते हैं। जरूरत पड़ने पर धर्म ग्रथ भी किसी के द्वारा दिए जाने पर रख लेते हैं। इस प्रकार ज्ञान एव सयम की रक्षा के लिए जो कुछ भी अल्पतम उपकरण वे ग्रहण करते हैं, उन पर भी उनका ममत्व नही होता। उनके खो जाने या नष्ट हो जाने पर भी उन्हें शोक नही होता। वे अपने शरीर की तरह इन उपकरणों के प्रति भी अनासक्त रहते हैं। मात्र सयम के साधन के रूप में उनका उपयोग करते हैं। आसक्ति ही हमारी आतरिक प्रथि है। इस प्रथि के छिद जाने के कारण जैन मुनि निम्रन्थ कहलाते हैं। 1त सू7/6 2 त सू77
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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