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________________ मुनि आचार जैनाचार का प्रमुख उद्देश्य अनादिकालीन राग-द्वेषादिक विकारों का समूल उच्छेदकर आत्मा की शुद्ध-बुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। इसलिए श्रावक अपने 'श्रावक-धर्म' सबधी नियमों का पालन करता हुआ साधुत्व की ओर कदम बढ़ाता है । आचार्य श्री 'समन्त भद्र' ने एक जैन साधक को चरित्र को ओर अग्रसर होने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्त संज्ञान । रागद्वेष निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु ।' अर्थात् मोहरूपी अंधकार के दूर होने पर साधक जब सत्य दृष्टि और यथार्थ बोध प्राप्त करता है तब वह राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए चरित्र को अगीकार करता है । गृहस्थ देश चरित्र को अंगीकार करता है,जबकि साधु पापों का परिपूर्ण रूप से त्याग कर महाव्रतों को धारण करता है। जो अपनी आत्मा की उपलब्धि के लिए सतत् साधनारत् रहता है वह साधु है। जैन दर्शन में साधु को मुनि, ऋषि, यति, अनगार,श्रमण,सयत महाव्रती, अचेलक,दिगम्बर, भदन्त, दान्त आदि अनेक नामों से जाना जाता है। जैन धर्मानुसार साधु व्रत का पालन करना अत्यंत दुष्कर है। इसे धारण करना तलवार की धार पर चलने की तरह माना जाता है। यह हर किसी के वश की बात नहीं है। इसीलिए हरेक व्यक्ति को मुनिव्रत धारण करने की अनुमति नहीं दी गयी है। मुनिव्रत की पात्रता जैन शास्त्रों में मुनि बनने की पात्रता की चर्चा करते हुए कहा गया है कि “संसार की असारता को अच्छी तरह समझने वाला, वैराग्यवान, प्रकृति से शांत, दृढ़, श्रद्धालु, विनम्र और प्रमाणिक व्यक्ति ही मुनि धर्म अंगीकार करने के अधिकारी हैं। इसके विपरीत हिंसादिक कार्यों में लिप्त, हत्या आदि का अपराधी, समाज व राष्ट्र के हितों में बाधक, देशद्रोही, 1 रकथा.47 2 जै जि को. 4/403 3 योगसार अमितगति 8/51
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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