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________________ 218 / जैन धर्म और दर्शन मानव मात्र में नैतिक और धार्मिक गुणों का आरोपण कर एक श्रेष्ठ इंसान बनाता है। इस तरह हम साधु धर्म को व्यक्ति धर्म तथा श्रावक धर्म को समाज धर्म भी कह सकते हैं। समस्त जैनाचार, श्रावकाचार या गृहस्थाचार तथा श्रमणाचार या साध्वाचार के रूप में विभाजित है। अगले अध्यायों में क्रमशः इनके स्वरूप पर पूर्ण विचार करेंगे। अहिंसा की व्यापकता जैन धर्म की अहिंसा, अहिंसा का चरम रूप है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव है। मिट्टी के ढेले में कीड़े आदि जीव तो हैं ही, परंतु मिट्टी का ढेला स्वयं पथ्वी कायिक जीवों के शरीर का पिड है। इसी तरह जल बिन्द में यत्रों के द्वारा दिखने वाले अनेक जीवों के अतिरिक्त यह स्वयं जल-कायिक जीवों के शरीर का पिंड है। यह बात अग्निकाय, आदि के विषयों में भी समझनी चाहिए। इस प्रकार का कुछ विवेचन पारसियों की धर्म पुस्तक 'आवेस्ता' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहां प्रतिक्रमण का रिवाज है उसी तरह उनके यहां भी पश्चात्ताप की क्रिया करने का रिवाज है। इस क्रिया में जो मंत्र बोले जाते हैं उनमें से कुछ का भावार्थ इस तरह है-“धातु-उपधातु के साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अपराध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "जमीन के साथ मैंने जो अपराध किया हो उसका में पश्चात्ताप करता हूं।" “पानी अथवा पानी के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "वृक्ष और वृक्ष के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" महताब, आफताब, जलती अग्नि, आदि के साथ जो मैंने अपराध किया हो मैं उसका पश्चात्ताप करता पारसियों का विवेचन जैनधर्म के प्रतिक्रमण-पाठ से मिलता-जुलता है जो कि पारसी धर्म के ऊपर जैनधर्म के प्रभाव का सूचक है। स्वामी रामभक्त के लेख 'जैनधर्म में अहिंसा से उद्धत वर्णी-अभिनंदन-ग्रन्थ प. सं. 134-35
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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