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________________ मोक्ष आत्मा की परम अवस्था / 171 1. पूर्व प्रयोग (कुम्हार के चाक की तरह) जैसे अग्नि कुम्हार के द्वारा घुमाया हुआ चाक, डडे के अभाव में अपने पूर्व सस्कारवश घूमता रहता है, वैसे ही जीवात्मा द्वारा चेतना के ऊर्ध्वारोहण के लिए किए गए ध्यानादि पुरुषार्थजन्य (प्रयोगजन्य) सस्कारवश जीवात्मा ऊर्ध्वगमन करता है। अत पूर्व सस्कार भी जीव के ऊर्ध्वगमन मे एक कारण है। 2. असग होने से जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त तुम्बी, मिट्टी के भार के कारण,पानी मे डूबी रहती है और जब वह मिट्टी पानी में गलकर घुल जाती है, तब वह ऊपर उठ जाती है । वैसे ही कर्म लेप से लिप्त जीवात्मा ससार में डूबा रहता है, कर्मों के भार से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगति कर लेता है। अत असगत्व ऊर्ध्वगति का दूसरा हेतु है। 3. बधन टूटने से जिस प्रकार अधोमुखी एरड का फल जब पककर फटता है तो उसका बीज नीचे की ओर न आकर,उचटकर, सीधे,ऊपर की ओर जाता है, उसी प्रकार कर्म बध के टूटने से मुक्तात्मा भी सीधे ऊपर की ओर जाते हैं, वह तिर्यक् या अधोगति मे नही जाते। 4. वैसा स्वभाव होने से-जैसे निर्वात अग्नि की शिखा ऊपर की ओर ही उठती है उसी प्रकार कर्म रहित जीवात्मा भी स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करता है। कर्मरूपी वायु से प्रताडित होते रहने के कारण ही वह इधर-उधर भटकता है। तात्पर्य यह है कि जब तक कर्म जीव की स्वाभाविक शक्ति को रोके रखता है, तब तक वह पूर्णतया ऊर्ध्वगमन नहीं कर पाता है। स्वाभाविक शक्ति के अवरोधक कर्मों के नष्ट हो जाने पर,जीवात्मा ऊर्ध्वगमन कर लोक के शिखर पर तिलक की तरह विराजमान हो जाता हैं। पुनरागमन नही ऊर्ध्वगति होने के बाद जीवात्मा का किसी भी परिस्थिति में पुनरागमन नही होता। जिस प्रकार बीज को जला देने पर वह अकरित नही होता.उसकी पुनरुत्पत्ति नही होती,उसी प्रकार राग द्वेष के अभाव हो जाने पर मक्तात्माओं का ससार में पनरागमन नही होता।' राग द्वेष ही ससार में उत्पत्ति के बीज हैं। कारण के बिना कार्य नही होता। इसी दृष्टि से जैन दर्शन में अवतारवाद को नही स्वीकारा गया है। अवतारवाद असंगत कुछ दार्शनिक, जीवात्मा के मुक्त हो जाने के बाद, उनका ससार में पुनरागमन मानते हैं । उनके मतानुसार जब-जब धरती पर धर्म का नाश होता है, अधर्म बढता है, तो ऐसी आत्माए धर्म का प्रस्थापन करने के लिए ससार में अवतरित होती हैं। उक्त बात तर्कसगत प्रतीत नही होती, क्योंकि एक बार मुक्त हो जाने के बाद पुन ससार में आने 1 तवा 1012/3 पर उड़त 2 (अ) यदा यदा हि धर्मस्य गलानि भवति भारत । अध्युषानमधर्मस्य तदात्माना सृजाम्यह ॥ महाभारत (ब) इ. स टी 14
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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