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________________ 160 / जैन धर्म और दर्शन बाह्य तप अनशन : ‘अशन' का अर्थ होता है ‘भोजन'। भोजन का त्याग करना 'अनशन' तप कहलाता है। यह सीमित समय के लिये भी होता है तथा यावज्जीवन भी। अनशन से भूख पर विजय होती है। भूख को जीतना और मन पर निग्रह करना अनशन तप है। अनशन से शारीरिक शुद्धि भी होती है। यह शरीर का सबसे बड़ा चिकित्सक है। कहा भी है लंघनंपरमौषधम् । अनशन को उपवास भी कहते हैं । 'उपवास' का अर्थ होता है-'उप' यानी 'पास'; 'वास' का अर्थ है बैठना। अपने करीब आने को उपवास कहते हैं। अकेले भोजन छोडना उपवास नहीं कहलाता। भोजन के साथ-साथ विषय-विकारों का त्याग कर, मन पर नियंत्रण करना ही उपवास है । मनोनिग्रह के अभाव में किया गया उपवास, उपवास न होकर लंघन कहलाता है। ध्यान की साधना में उपवास बहुत आवश्यक है। ऊनोदर : 'ऊल' का अर्थ है 'कम', 'उदर' अर्थात् पेट अर्थात् भोजन करते समय भूख से कम खाना । पेट को अपूर्ण रखना ऊनोदर तप है। अधिक खाने से मस्तिष्क पर रक्त का दबाव बढ़ जाता है। परिणामतः स्फर्ति कम हो जाती है और नींद आने लगती है। इसके अतिरिक्त अधिक खाने से वायु-विकार आदि अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। उनोदर तप बहुत उपयोगी है। इससे ब्रह्मचर्य की सिद्धि भी होती है तथा यह निद्रा विजय का साधन है। भूख से कम खाना ही ऊनोदर है, इसे अवमौदर्य भी कहते हैं। वृत्ति-परिसंख्यान : जब मुनि भिक्षा के लिये निकले तो घरों का नियम करना कि मैं आहार के लिए इतने घर जाऊँगा अथवा इस रीति से आहार मिलेगा तो लूँगा अन्यथा नहीं। इसे वत्ति-परिसंख्यान तप कहते हैं। यह तप भोजन के प्रति आशा की निवृत्ति के लिए किया जाता है। रस-परित्याग : 'रस' का अर्थ है 'प्रीति बढाने वाला' । “रस प्रीतिविवर्धनम्"-रस भोजन में प्रीति बढाता है । घी, दूध, तेल, दही, मीठा और नमक-इन छह प्रकार के रसों के संयोग से भोजन स्वादिष्ट होता है तथा अधिक खाया जाता है। इनके अभाव में भोजन नीरस हो जाता है। इन्द्रिय पर विजय पाने के लिये इनमें से किसी एक.दो या सभी का त्याग करना रस-परित्याग तप है।' विविक्त-शय्यासन : ब्रह्मचर्य, ध्यान, स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना तथा आसन लगाना विविक्त-शय्यासन तप है। कायक्लेश-कायक्लेश' का अर्थ होता है शारीरिक कष्टों/बाधाओं को सहन 1 स्वय भू खोत 83 2 कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधीयते उपवासो स विज्ञेयो शेष लघन क विदु (का अनु पर उद्धृत पृ 33) 3 तवा 9/19/3 4 तवा 9/19/4 5त वा 9/19/5 6 तवा 91912
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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