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________________ कर्म मुक्ति के उपाय :-(संवर-निर्जरा) / 151 त्याग करने के बाद भी उस त्याग के प्रति ममत्व रह सकता है, आकिंचन्य धर्म में उस त्याग के प्रति होने वाले ममत्व का त्याग कराया जाता है । 10. ब्रह्मचर्य : ब्रह्म अर्थात् आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है। रागोत्पादक साधनों के होने पर भी उन सबसे विरक्त होकर, आत्मोन्मखी बने रहना ब्रहचर्य धर्म है। __इस प्रकार धर्म के यह दस लक्षण कोई बाहरी तत्त्व नहीं हैं वरन् विकारों के प्रभाव में प्रकट होनेवाली आत्म-शक्तियां ही हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच-ये आत्मा के अपने भाव हैं, जो क्रमशः क्रोधादिक विकारों के अभाव में प्रकट होते हैं, तथा सत्य,संयम, तप और त्याग इनकी प्राप्ति के उपाय हैं, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मों का सार है। अपनी आत्मा पर आस्था, अपने अविनश्वर वैभव का ज्ञान और अपने आत्म-ब्रह्म में रमण धर्म का सार तो इतना ही है। चारों गतियों के दुःखों से छुड़ाने की सामर्थ्य इसी में है। अनुप्रेक्षा किसी भी पदार्थ का बार-बार चिंतन अनुप्रेक्षा कहलाती है। विचारों का हमारे मन पर बहत गहरा प्रभाव पड़ता है। जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का जब हम अंतर-विश्लेषण करते हैं तो बहुत कुछ सार तत्त्व हमारे हाथ आ जाता है, हमारा मनोबल बढ़ता है, और हम सत्य पुरुषार्थ की ओर प्रयत्नशील होते हैं। संसार शरीर और भोगों के स्वरूप पर जब हम बार-बार विचार करते हैं, तो उनकी निःसारता हमारी समझ में आने लगती है तथा सहज ही वैराग्य के अंकुर फूटने लगते हैं। इसलिए इन्हें वैराग्य की उत्पत्ति में माता की तरह कहा गया है। जैन दर्शन में बारह अनुप्रेक्षाएं प्रसिद्ध हैं। इन्हें बारह भावना भी कहते हैं। वे हैं क्रमशः अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभ और धर्म । आइए अब हम इनके स्वरूप पर विचार करें। 1. अनित्य अनप्रेक्षा : संसार में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है,उसका विनाश सुनिश्चित है। संसार के सारे संयोग विनाशशील हैं, क्षण-क्षयी हैं। चाहे हमारा शरीर हो, सम्पत्ति हो या संबंधी, सबके-सब छूटने वाले हैं। इनका अस्तित्व भोर के तारे की तरह है, जो कुछ ही क्षणों में विलीन होने वाला है। इस प्रकार का चिंतन करना अनित्यानुप्रेक्षा' है। 2. अशरण अनुप्रेक्षा : जन्म, जरा और मृत्युरूपी भयों से, इस संसार में कोई भी किसी को बचा नहीं सकता। चाहे कितना ही बड़ा परिकर और परिवार हो, धन और वैभव हो अथवा देवी-देवताओं की उपासना की जाए, मृत्यु के समय इनका कोई जोर नहीं चलता, सारे साधन रहते हुए भी निष्प्राण हो जाते हैं। जन्म लेने वाले का मरण अनिवार्य है। बड़ी-बड़ी औषधि, मंत्र-तंत्र और संसार के सारे पदार्थ व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार शेर के मुख में रहने वाले हिरण को कोई बचा नहीं सकता, उसी प्रकार इस जीव को मृत्युरूपी सिंह के मुख से नहीं बचाया जा सकता। ऐसी स्थिति में कोई शरण और सहारा है तो मात्र देव, धर्म और गुरु ही हमारे शरण हैं जो हमें मृत्यु के आतंक से बचा सकते हैं, इस प्रकार का चिंतन करना 'अशरणानुप्रेक्षा' है।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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