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________________ कर्मों की विविध अवस्थाएं पिछले अध्याय में यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार के कर्मों से बंधा जीव संसार में पर्यटन करता है। किंतु यह जरूरी नहीं है कि वह उन्हें जिस रूप में बांधे उसी रूप में भोगे। जीव के शुभाशुभ भावों के अनुसार कर्मों में, बहुत कुछ परिवर्तन संभव है। जीव के शुभाशुभ भावों की अपेक्षा उत्पन्न होने वाली कर्मों की विविध अवस्थाओं को 'करण' कहते हैं। करण दस होते हैं (1) बंध कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ बंधना अर्थात् दूध और पानी की तरह एकमेक हो जाना बंध हैं। बंध के बाद ही अन्य अवस्थाएं प्रारंभ होती हैं। यह चार प्रकार का होता है- 1. प्रकृति, 2. प्रदेश, 3. स्थिति, 4. अनुभाग। इसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी (2) सत्ता कर्म,बंधने के तत्काल बाद अपना फल नहीं देते । बंधन के दूसरे समय से लेकर फल देने के पहले समय तक कर्म आत्मा में अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। कर्मों की इस अवस्था को 'सत्ता' कहते हैं। जैसे-शराब पीते ही वह तुरंत अपना असर नहीं देती, किंतु कुछ क्षण बाद ही उसका प्रभाव दिखता है, वैसे ही कर्म भी बंधने के बाद कुछ समय तक सत्ता में रहता है। इस काल को जैन कर्म-शास्त्र में 'अबाधा काल' कहते हैं। साधारणतया कर्म का अबाधा काल उसकी स्थिति के अनुसार होता है। जैसे-जो शराब जितनी अधिक दिनों तक सड़ाकर बनती है, वह उतनी ही अधिक नशीली होती है, उसी प्रकार जो कर्म जितने अधिक समय तक ठहरता है उसकी अबाधा भी उतनी ही अधिक होती है। प्रत्येक कर्मों की अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप अबाधा होती है। जैन कर्म-सिद्धांत में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। 1. गो. कर्म का 437 2. एकीभावो बन्धः 3. पंच संग्रह 3/3
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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