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________________ कर्म और उसके भेद-प्रभेद / 133 नीच गोत्र नाम दिया गया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म 'गोत्र-कर्म' कहलाता इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गयी है। जैसे कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही ऐसे होते हैं, जिन्हें लोग कलश बनाकर चंदन, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों से अलंकृत करते हैं और कितने ही ऐसे होते हैं जिनमें मदिरा आदि निन्ध पदार्थ रखे जाते हैं, इसलिए निम्न माने जाते हैं। इसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से जीव कुलीन/पूज्य/अपूज्य/अकुलीन घरों में उत्पन्न होता है। गोत्र कर्म दो प्रकार का होता है-1. उच्च गोत्र तथा 2. नीच गोत्र। गोत्र-कर्म के बंध का कारण परनिंदा, आत्म-प्रशंसा, दूसरे के सद्भूत गुणों का आच्छादन तथा अपने असद्भूत गुणों को प्रकट करना यह सब नीच गोत्र के बंध के कारण हैं। इसके विपरीत स्व की निंदा,पर की प्रशंसा, अपने गुणों का आच्छादन, पर के गुणों का उद्भावन, गुणाधिकों के प्रति विनम्रता तथा ज्ञानादि गुणों में श्रेष्ठ रहते हुए भी, उसका अभिमान न करना,ये सब उच्च गोत्र के बंध का कारण है। अन्तराय-कर्म जो कर्म विघ्न डालता है, उसे अंतराय-कर्म कहते हैं। इस कर्म के कारण आत्मशक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है। अनुकूल साधनों और आंतरिक इच्छा के होने पर भी जीव इस कर्म के कारण अपनी मनोभावना को पूर्ण नहीं कर पाता। इस कर्म को भण्डारी से उपमित किया है। जिस प्रकार किसी दीन-दुःखी को देखकर दया से द्रवीभूत राजा भण्डारी को दान देने का आदेश करता है, फिर भी भण्डारी बीच में अवरोधक बन जाता है। वैसे ही यह अंतराय-कर्म जीव को दान-लाभादिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न करता है। इसके पांच भेद हैं 1. जिस कर्म के उदय से दान देने की अनुकूल सामग्री और पात्र की उपस्थिति में भी दान देने की भावना न हो, वह 'दानांतराय कर्म' है। 2. जिस कर्म के उदय से बुद्धिपूर्वक श्रम करने पर भी लाभ होने में बाधा हो वह 'लाभांतराय कर्म' है। 3. जिसके उदय से प्राप्त भोग्य वस्तु का भी भोग न किया जा सके, वह 'भोगांतराय कर्म' है। 1. सवाणकर्मेणागय जीवायरणस्स गोदमिदिसण्णा । कर्म काण्ड-11-13 2. बह कुभारो पहाइ कुणइ पुज्जेयराइ लोयस्स । इय गोय कुणः पिय लोए पुज्जेयरानत्व ॥ अणाग 2/4ns टी. 3. उर्चनीचैश्च-तसू.8/12 4. सर्वा सि626/340 5. भाण्डागारिकवद् दानादि विन करणता। वृ.इ.स.टी गा33
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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