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________________ 116 / जेन धर्म ओर दर्शन 'अपूर्व वासना' अथवा 'कर्म' कहा जाता है । बौद्ध-दर्शन में कर्म वासना रूप है। जैन दर्शन में कर्मविषयक मान्यता इन सबसे पृथक् है । जैन सिद्धात में जो कर्म सिद्धात का विवचन मिलना है वह अत्यन विशद तथा अर्थपूर्ण है। जैन मान्यता के अनुसार कर्म का अर्थ कायिक क्रियाकाडो एव अन्य प्रवृत्तियों से नही है । न ही बौद्धों और वैशेषिकों की तरह सस्कार मात्र है, अपितु कर्म भी एक पृथक् सत्ता भूत पदार्थ है । जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल-परमाणुओ का पिड माना गया है। तद्नुसार, यह लोक तेईम प्रकार की पुदगल-वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल-परमाणु कर्म रूप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्म वर्गणा कहते है। कुछ शरीर रूप से परिणत होते है वे नोकर्म वर्गणा कहलाते हैं। लोक इन दोनो प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन्हें ग्रहण करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सबद्ध हो, तथा जीव के साथ कर्म तभी सबद्ध होते है, जब मन, वचन या काय की प्रवृत्ति हो। इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से कर्म की परपरा अनादि से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्यकारण भाव को दृष्टिगत रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिड रूप कर्म को 'द्रव्य कर्म' तथा रागद्वेषादि रूप प्रवृत्तियो को 'भाव-कर्म' कहा गया है।' द्रव्य कर्म और भाव कर्म का कार्य-कारण सबध वृक्ष और बीज के समान अनादि है। जगत् की विविधता का कारण उक्त द्रव्य-कर्म ही है, तथा राग-द्वेषादि मनोविकार रूप भाव-कर्म ही जीवन में विषमता उत्पन्न करते है। अमूर्त का मूर्त से बंध कैसे? इस प्रसग मे यह जिज्ञासा सहज ही हो जाती है कि जीव चेतनावान, अमूर्त पदार्थ है तथा कर्म पौद्गलिक पिड। तब मूर्त का अमूर्त आत्मा से बध कैसे होता है ? मूर्तिक का मूर्तिक से सबध तो उचित है, कितु मूर्तिक का अमूर्तिक से सबध कैसे होता है। इस प्रश्न का समाधान जैनाचार्यों ने अनेकातात्मक शैली में दिया है। जैन दर्शन में ससारी आत्मा को आकाश की तरह सर्वथा अमूर्त नही माना गया है। उसे अनादि बधन-बद्ध होने के कारण मूर्तिक भी माना गया है। बध पर्याय में एकत्व होने के कारण आत्मा को मर्तिक मानकर भी वह अपने ज्ञान आदि स्वभाव का परित्याग नही करता. इस अपेक्षा से उसे अमूर्तिक कहा गया है। इसी कारण अनादि बधन-बद्धता होने से उसका मूर्त कर्मों के साथ बध हो जाता है । जिस प्रकार घी (नामक पदार्थ) मूलत दूध में उत्पन्न होता है,परतु एक बार घी बन जाने के बाद उसे पुन दूध रूप में परिणत करना असभव है अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलत 1 गो का का 6 2 द्रस गा7
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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