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________________ 112 / जैन धर्म और दर्शन जानावरणी कर्म का स्वभाव ज्ञान को ढाकना है.पर वह कितना ढांके? यह उसके अनुभाग बंध की तरतमता पर निर्भर है । प्रकृति बंध और अनुभाग बंध में इतना ही अंतर है। अनुभाग बंध में तरतमता हमारे शुभशुभ भावों के अनुसार होती रहती है। मंद अनुभाग में हमें अल्प मुख-दुःख होता है तथा अनुभाग में तीव्रता होने पर हमारे सुख-दुःख में तीव्रता होती है। जैसे उबलते हुए जल के एक कटोरे से भी हमारा शरीर जल जाता है कितु सामान्य गर्म जल से स्नान करने के बाद भी कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार तोव अनुभाग युक्त अल्पकर्म भी हमारे गुणों को अधिक घातते हैं तथा मंद अनुभाग युक्त अधिक कर्म-पुंज भी हमारे गुणों को घातने में अधिक समर्थ नहीं हो पाते । इसी कारण चारों बंधों में अनुभाग बंध की ही प्रधानता है। __ इन चार प्रकार के बंधों में प्रकृति-बंध और प्रदेश बंध योग से होते हैं, जबकि स्थिति और अनुभाग-बंध का कारण कषाय है । __ इस प्रकार कर्मों से बंधा हुआ जीव विकारी होकर नाना योनियों में भटकता है। कर्म ही जीव को परतंत्र करते हैं। संसार में जो विविधता दिखाई देती है, वह सब कर्म बंध जन्य ही है। आस्रव और बंध के स्वरूप को विशेष रूप से समझने के लिए कर्म सिद्धान्त पर विचार करना जरूरी है। उसके बिना इस विषय को समझ पाना असंभव है । पुण्य पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है । मन शरीर और बाह्य परिवेश में संतुलन बनाना यह पुण्य कार्य है। पुण्य मात्र शुभास्रव ही नहीं वह पाप का विधातक भी है। पुण्य अशुभ कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरुप प्राप्त अवस्था का द्योतक है। वह मोक्ष की उपलब्धि में बाधक नहीं साधक है। पुण्य के मोक्ष की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री पूज्य पाद कहते हैं, “पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर जाता है।" वस्तुतः पुण्य मोक्षार्थियो की नौका के लिए अनुकूल वायु है जो नौका को भव सागर से शीघ्र पार करा देती है।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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