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________________ 110 जेन धर्म और दर्शन लिए अलग शक्निया कार्य करती है। बंध के कारण मूल रूप में दो ही शक्तियां कर्म बंध का कारण हैं—कषाय और योग । योग रूप शक्ति के कारण कर्म वर्गणाएं जीव की ओर आकृष्ट होती हैं तथा रागद्वेषादि रूप मनोविकार (कषाय) का निमित्त पाकर जीवात्मा के माथ चिपक जाते हैं, अर्थात् योग शक्ति के कारण कर्म वर्गणाएं कर्म रूप से परिणत होती हैं तथा कषायों के कारण उनका आत्मा के साथ संश्लेष रूप एक क्षेत्रावगाह संबंध होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म-बंध मे मूल रूप से दो शक्तियां ही (योग और कषाय) काम करती है।' इनमें कषायों को गोंद की,योग को वायु की, कर्म को धूल की तथा जीव को दीवार की उपमा दी जाती है। दीवार गीली हो अथवा उस पर गोंद लगी हो तो वाय से प्रेरित धल उस पर चिपक जाती है, कितु साफ-स्वच्छ दीवार पर वह चिपके बिना इड़कर गिर जाती है। उसी प्रकार योग रूप वायु से प्रेरित कर्म भी कषाय रूप गोंद युक्त आत्मप्रदेशों से चिपक जाती है। धूल की हीनाधिकता वायु के वेग पर निर्भर करती है तथा उनका टिके रहना गोंद की प्रगाढता और पतलेपन पर अवलम्बित है। गोद के प्रगाढ होने पर धुल की चिपकन भी प्रगाढ होती है तथा उसके पतले होने पर धूल भी जल्दी ही झड़कर गिर जाती है। उसी प्रकार योग की अधिकता से कर्म प्रदेश अधिक आते हैं तथा उनकी हीनता से अल्प। उत्कृष्ट योग होने पर कर्म प्रदेश उत्कृष्ट बधते हैं तथा जघन्य होने पर जघन्य । उसी प्रकार यदि कषाय प्रगाढ़ होती हैं तो कर्म अधिक समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अधिक मिलता है। कषायों के मंद होने पर कर्म भी कम समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अल्प मिलता है। इस प्रकार योग और कषाय रूपी शक्तियां ही बंध के प्रमुख कारण हैं। इसलिये जैन धर्म में कषाय के त्याग पर जोर देते हुए कहा गया है कि “जिन्हें बध नहीं करना है वे कषाय न करें"। बंध के भेद द्रव्य बंध और भाव बंध की अपेक्षा बंध के दो भेद किये गये हैं। जिन राग, द्वेष, मोहादि मनोविकारों से कर्मों का बंध होता है उन्हें 'भाव-बंध कहते हैं तथा कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ एकाकार हो जाना 'द्रव्य' बंध है। भाव बंध ही द्रव्य बंध का कारण है, अत: उसे प्रधान समझकर बचना चाहिए। द्रव्य बंध के भेद : द्रव्य बंध के चार भेद किए गए हैं-1. प्रकृति बंध, 2. स्थिति बंध,3. अनुभाग बंध,4. प्रदेश बंध। - 1. द्र स 33 2 मो मा प्र पृ35 3 5 स 32 4 (अ) त स्8/3 (4) पयदिदिदि अणुभागा पदेस भेदा दुचदु विधोबधों इस 33
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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