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________________ अजीव तत्व- पुद्गल द्रव्य / 101 प्रदेशी कहलाते हैं। इन्हें अस्तिकाय नहीं कहा जाता। जैन दर्शन में धर्म, अधर्म, आकाश तथा जीव और पुद्गल पांच द्रव्यों को पंचास्तिकाय के नाम से भी जाना जाता है। उपर्युक्त छह द्रव्यों में से जीव और पुद्गल मे गतिशीलता भी पायी जाती है। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय और शुद्ध हैं। इनका शुद्ध परिणमन ही होता है । ये एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाते हैं। शुद्ध पुद्गल तथा जीव भी शुद्ध परिणमन करते हैं किंतु पुद्गल की विशेषता यह है कि एक बार शुद्ध होने के बाद वह पुन स्कंध रूप अशुद्ध परिणमन भी कर लेता है। जीव एक बार शुद्ध होने के बाद फिर कभी अशुद्ध नहीं होता । इन छहों द्रव्यों की संख्या में कभी भी हानि वृद्धि नहीं होती । समुद्रों में उठने वाली लहरों की तरह प्रतिक्षण परिवर्तित रहने के बाद भी अपने अस्तित्व को नहीं खोते तथा इनके प्रदेशों में हीनाधिकता भी नहीं होती । अत इन्हें नित्य और अवस्थित कहते हैं । - छोड़ शेष पांच द्रव्य अरूपी/ अमूर्त हैं जीव के अतिरिक्त शेष पाच जड हैं । पुद्गल को इस प्रकार यह विश्व इन छह द्रव्यों से बना है । यह अनादि निधन है । किमी के द्वारा बनाए नहीं गए हैं। इनका संचालन किसी शक्ति या पदार्थ से नहीं होता अपितु प्रत्येक द्रव्य अपने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लक्षण वाले स्वभाव से स्वय अपना परिणमन करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार यह सारी लोक व्यवस्था इन छहों द्रव्यो के ही आश्रित है । प्रतिच्छाया और टेलिविजन जैन शास्त्रों में छाया का वर्णन करते हुए बताया गया है - विश्व के किमी भी मूर्त पदार्थ से प्रतिक्षण तदाकार प्रतिछाया निकलती रहती है। और वह पदार्थ के चारों ओर आगे बढ़कर विशव में फैलती है। जहां उसे प्रभावित करने वाले पदार्थों का संयोग होता हैं वहां वह प्रभावित होती | प्रभावित करने वाले पदार्थ जैसे—दर्पण, तेल, घृत, जल आदि । विज्ञान के क्षेत्र मे जो टेलिविजन का आविष्कार हुआ है, लगता है वह इसी सिद्धांत का उदाहरण हैं। वह एक देश में बोलने वाले व्यक्ति का चित्र समुद्रों पार दूसरे देश में व्यक्त करता हैं। हो सकता है जैसे रेडियो यंत्र गृहीत शब्दों को विद्युत प्रवाह से आगे बढ़ाकर सहस्रों मील दूर ज्यों का त्यों प्रगट करता है उसी प्रकार टेलिविजन भी प्रसारण शील प्रतिच्छाया को ग्रहण कर उसे विशेष प्रयत्नों द्वारा प्रवाहित कर सहस्रों मील दूर ज्यों का त्यों व्यक्त करता है । जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान पृ. क्रमांक 66 1द्रस261 2 त सू 5/4
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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