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________________ 98/ जैन धर्म और दर्शन परिणमन नहीं हो सकता । समय,पल,घड़ी,घंटा, मिनट आदि व्यवहार काल हैं। समय काल की सूक्ष्मतम इकाई है। एक पुद्गल परमाणु को मंद गति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में जो काल लगता है,उसे समय कहते हैं।' नया,पुराना,बड़ा, छोटा,दूर,पास वहार इस व्यवहार काल द्रव्य के ही आश्रित है। इसका अनुमान सौर मंडल एवं घड़ी आदि के माध्यम से लगाया जाता है। द्रव्यों के होने वाले परिणमन से भूत, भविष्य और वर्तमान का व्यवहार भी इसी काल के आश्रित है। इसे सभी दर्शनकारों ने स्वीकारा है किंतु कुछ इसे अखंड और व्यापक मानते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। यदि ऐसा होता तो भिन्न क्षेत्रों में समय भेद नहीं देखा जाता । हम देखते हैं कि भारत में होने वाले समय और अन्य देशों में होने वाले समय में भेद दिखाई पड़ता है। (भारत और लंदन के समय में 5 घंटे का फर्क है) यह काल द्रव्य की अनेकता का ही परिणाम है । यदि काल द्रव्य एक होता तो सर्वत्र एक ही समय प्रवर्तित रहता। कुछ दार्शनिक निश्चयकाल को अस्वीकारते हुए मात्र व्यवहार काल को स्वीकारते हैं, किंतु व्यवहार काल से ही निश्चय काल का अनुमान किया जाता है। जैसे किसी बालक में शेर का उपचार मुख्य शेर के सदभाव में ही किया जाता है। उपचरित शेर वास्तविक शेर का परिचायक होता है, वैसे ही काल संबंधी समस्त व्यवहार मुख्य काल के अभाव में नहीं हो सकते। कालचक्र व्यवहार काल की समष्टि ही युगों और कल्पों में समाविष्ट हो जाती है, जिस प्रकार वैदिक धर्मों में काल के सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग रूप से चार भेद किए हैं। इन चारों युगों की कल्पना धर्म की हानि वृद्धि के आधार पर की जाती है और की यह युग करोडों वर्ष का होता है। धर्म की हानि वृद्धि के आधार पर कालचक्र का वर्गीकरण किया गया है। उसी प्रकार जैन दर्शन में काल दो विभागों में विभक्त है। जिस प्रकार गाड़ी का पहिया ऊपर से नीचे की ओर तथा नीचे से ऊपर की ओर घूमता रहता है । जैन दर्शनकारों ने काल को उसी तरह दो विभागों में विभाजित किया है। एक नीचे से ऊपर की ओर जाने वाला अर्थात् दुःख से सुख की ओर जाने वाला । दूसरा ऊपर से नीचे की ओर जाने वाला अर्थात् सुख से दुःख की ओर जाने वाला। कालचक्र पहिये की तरह ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर की ओर घूमता रहता है अर्थात् सारी समष्टि सुख से दुःख की ओर तथा दुःख से सुख की ओर घूमती रहती है। नीचे से ऊपर आने वाले काल खंड को उत्सर्पिणी काल कहते हैं, क्योंकि इसमें बुद्धि, आयु, बल और शरीर की ऊंचाई आदि में क्रमशः उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है। ऊपर से नीचे की ओर जाने वाला अवसर्पिणी काल कहलाता है, क्योंकि इसमें आयु, बुद्धि, बल का अवसर्पण अर्थात् हास होता है। अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी दोनों को मिलाने पर कालचक्र पूरा होता है। ये दोनों मिलकर कल्प कहलाते हैं। 1. निस,पृ31
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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