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________________ ( ८४ ) का, विचार धाराओं के प्रवाह का एवं भावनाओं के क्रम का ज्ञान प्राप्त कर जीव युक्त उपायों द्वारा वैपरीत्य का प्रक्षालन करने समर्थ हो सकता है । इस अन्तर पर्यवेक्षण से चेतन का वास्तविक स्वरूप दर्पण के प्रतिबिंब की तरह झलकने लगता है एवं मनीशी सुख व दुख के कारणों का ठीक २ अनुमान लगा लेता है। मेधावी यह भी जान लेता है कि परिस्थितियों का दासत्व क्यों व कैसे मन के व्यामोह द्वारा आत्मा को इतस्ततः, उद्विग्न हो भ्रमण करने को बाध्य करता है। संसार की अनिश्चितता; अस्थिरता, भावी की अज्ञानता अपने अननुकूल होने वाले पदार्थों के परिवर्तन आदि से जो विक्षेप उत्पन्न होता है वह भी उसके नियन्त्रण में भा जाता है। कौन सा भाव किस कोटि का है एवं उसके द्वारा कैसी और कितनी अशांति मन को घेर लेगी यह सहज में ही अनुमेय हो उठता है। क्रमशः मन का व परिस्थितियों का नियन्त्रण, मानव के अपने हाथ में आ जाताहै, परोक्ष को या दूर की या अज्ञात की संज्ञा लुप्त होती चली जाती है, एवं उदीयमान ज्ञानालोक समस्त द्रव्यों व भावों के शक्ति सामर्थ्य व परिवर्तन को हस्तामलकवत् स्पष्ट बोध्य कर देता है, ताकि निश्चिन्त, निःशंक निराबाध, निरुद्विग्न चित से वह चेतन की नित्यानन्द श्रोतस्विनी में निष्कन्टक शांति पीयूषका पान करता रहे। जैन तत्वधारा ने जीव के उन्नति क्रम (Evolution theory) को आज से सहस्रों वर्ष पूर्व अपने ढङ्ग से स्वीकार कर लिया
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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