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________________ ( १ ) करा उनको भी इस ओर आकर्षित करें ताकि समस्त मानव समाज हमारे विकास की सौम्यता से लाभ उठा सके। . हम कई बार कह चुके हैं कि जैन संस्कृति की वाटिका में पल्लवित ज्ञान पुष्पों की संख्या इतनी अधिक है कि एक २ के रूप गुण का वर्णन करने के लिये पृथक २ ग्रंथ की आवश्यकता है, हम तो इस संकुचित परिधि में उल्लेख मात्र कर सकते हैंवह भी इने गिने हमारी दृष्टि से उपयोगी रत्नों मात्र का । हम तो आज जैनियों का अपेक्षा जैनेतरों से प्रार्थना करते हैं कि वे इस ज्ञान कुज के सोरभ को जहां का तहां पड़े २ शुष्क न हो जाने दें, बल्कि स्निग्ध मंथर वायु के प्रवाह को इस ओर आकर्षित कर समस्त मानव गगन को इस परिमल के प्रसार द्वारा परिव्याप्त करदें ताकि भारतीयता का वैशिष्ट्य पुनः बाग उठे एवं मानव से मानव का पारस्परिक द्वेष व तद् जन्य कालुष्य लुप्त हो सब के जीवन को सुखी व सौम्य बना दे। ___ जैनानुयायियों की अकर्मण्यता एव रूढ़िग्रस्त गाढ़ निद्रा को देख मुझे यह आशा नहीं कि वे कुछ कर धर सकेंगे । निकट भविष्य में उनकी मूळ दूर होती नहीं दिखायी देती, उन्हें तो अभी सामान्य श्रेणी के मुग्ध सुलभ उपाख्यानों व प्रलापों से अवकाश नहीं मिलता वे कहां से सत्य व तत्व के विशिष्टान्वेष की ओर दृष्टिपात करें । पर आज स्वातंत्र्य प्राप्ति ने हमारे बंधनों को दूर कर दिया है, हम अब पुनः विकास, पथ की ओर द्रुतगति से अग्रसर होने को मुक्त है । कोई बाह्य बाधा हमे अब अस्थिर नहीं कर
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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