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________________ प्रमाण व नय से ज्ञान होता है - कितना गूढ़ बीज मन्त्र है यह, और कितना स्पष्ट उल्लेख । प्रमाण की परिभाषा करते हुये किसी जैन ऋषि का यह अमोघ वाक्य " भ्रमभिन्नतुज्ञानमालोच्यते प्रमा” इस जगत के ज्ञान विज्ञान के साथ सदा जीवित रहेगा। । ज्ञान को स्थायी अविसम्बादी, निभ्रांत, स्पष्ट, उपयोगी एवं उपकारी बनाने के लिये ज्ञान के साधनों का वर्णन अत्यन्त सुन्दर है इस सिद्धान्त में । किसी ऋषि ने दो सहस्र वर्ष पूर्व कहा-"निदेष, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति व विधान तथा सत् , संख्या; क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व द्वारा ज्ञान की स्पष्टता व उपयोगिता झलक उठती है और मानव अपने अतीत के मोह एवं भ्रम भरे भावरण से उन्मुक्त हो अनागत को आलोक मय कर सकता है।" ज्ञान को सौम्य व सार्थक बनाने के लिये इन प्रणालियों का क्या महत्व है, यह विचारक स्वयं समझ सकते हैं। क्या इस तरह की सूक्ष्म पद्धति किसी भी अन्य साहित्य में कहीं देखने में आई ? क्या हम इन विशिष्ट विवरणों से कोई लाभ नहीं उठा सकते ? क्या ये सब बातें किसी मुग्ध के अनर्गल प्रलाप की तरह यों ही विस्मृत किये जाने योग्य हैं ? क्या किसी को भी इन में सार नहीं दिखाई देता ? प्रत्येक भारतीय के सामने मानवत्ता निनिमेष दृष्टि से देख रही है कि वह इन मन्त्रों को निरुद्देश्य व अनुपयुक्त रख कर यों ही नष्ट होने देता है या इनका उपयोग कर ज्ञान के क्षेत्र को विकसित करता है।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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