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________________ ___( ६४ ) है तत्व है उसका कार्य अन्य किसी तत्व द्वारा सम्पादित नहीं होता। उस स्थिति सहायक तत्व को अधर्म कह कर उन्होंने तत्व क्षेत्र में नई प्रेरणा को आश्रय दिया किन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य उल्लेख मात्र के, अन्य कोई विस्तृत विवरण इस बारे में हमें नहीं मिलता। सामान्य बुद्धिगम्य न होने से किसी ज्ञान धारणा की उपेक्षा हमें शोभा नहीं देता । वैज्ञानकों व विचारकों को भारतीय संस्कृति की इस अद्भुत देन का समुचित आदर करना चाहिये, यह हमारा सानुनय अनुरोध है। षङ द्रव्य की जैन रूपरेखा यों ही टालने की वस्तु नहीं है । परिष्कृत युक्ति का सहारा ले जैन दर्शन उसी भाव को द्रव्य मानने को तैयार हुआ है जिसे अनिवार्य कहे बिना सत्य व व्यवहार की स्थापना नहीं हो सकती । तुलनात्मक मनन से यह निभ्रांत निर्णय हो सकना अस्वाभाविक नहीं है कि मूल शक्तियों की इससे सुन्दर स्पष्ट व्याख्या आज तक तो नहीं की गई । जीव व जड़ वास्तव में आवश्यक द्रव्य है जगत् के समस्त दृश्य व अदृश्य रूप के निर्माण के लिये अन्यथा जगत् का अस्तित्त्व नहीं रहता। अवकाश देने वाले आकाश को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानना पड़ता है। समस्त जीव जड़ की निरंतर प्रवाहित अव्यावाध जीवन धारा को प्रमाणित करने के लिये परिवर्तन स्वभावी-परिवर्तन वो गिनने वाले-काल को माना ही जायगा। अब रही दो शक्तियां “ गति व स्थिति", गति तो प्रत्यक्ष है एवं आधुनिक विज्ञान द्वारा उसका वैशिष्ट्य किसी हद तक मानव की पहुंच के दायरे में आचुका है और स्थिति सब की जीवन धारणा व नियमतता के लिये अपेक्षित है अन्यथा
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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