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________________ ( ५५ ) और कोई बड़ी गणना सत्य हो, पर तत्त्व की दृष्टि में तो वह शुद्धतम समय ही सत्य है इसके अतिरिक्त अन्य सब संयोगजन्य पदार्थों के संयोगजन्य जीवन मरण के व्यवहार मात्र हैं। . __काल तत्त्व की महावीर दृष्टि अपरिमेय महिमा का विस्तृत उल्लेख करने का यहां सुयोग नहीं है अतः हमें तो आगे बढ़ना ही है पर विज्ञों से हमारा अनुरोध है कि इस तत्त्व के अन्तर्गत रहे हुये सत्य को अपनाय ताकि मानव अज्ञानता के पट खुलते चले जाय । - धर्म व अधर्म तत्त्व की एक साथ ही संक्षिप्त पर्यायालोचना करना उपयुक्त है । जैन दार्शनिक संस्कृति ने विचार सिद्धांत को यह बड़ी भारी देन दी है - किसी अन्य दार्शनिक पद्धति ने प्राकृतिक शक्तियों में गति व स्थिति नामक तद्गुण बोधक किसी स्वतंत्र द्रव्य धारा की आवश्यकता को नहीं सोचा । क्रियाशील पदार्थों की गति को सार्थक बनाने के लिये गति माध्यम की अपेक्षा है। मीन की गति के लिये जिस प्रकार जल सहायक है उसी तरह पदार्थों व द्रव्यों के आकाश में इतस्ततः भ्रमणादि के लिये सहायक मध्यम की अपेक्षा होनी ही चाहिये अर्थात पदार्थों के स्थानांतर गमन में सहायक माध्यम शक्ति अपेक्षितहै । आधुनिक विज्ञानके पूर्वकालीन आचार्यगण "इथर" नामक गति सहायक माध्यम की अनिवार्य आवश्यकता मानते हैं; यद्यपि इन चालीस वर्षों में कुछ विचारक यह भी मानने लगे हैं कि गति को पदार्थ का स्वभाव मान लेने से कार्य चल जायगा अतः पृथक शक्ति मानने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। महावीर ने आज से सहस्रों वर्ष पूर्व इस विषय पर मानों गंभीर गवेषण कर यह स्थिर कर दिया कि गति
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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