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________________ भी सिद्धांत कैसे समर्थ हो सकता है ? यही ही प्रवाह सब कुछ का जीवन है । पदार्थ में संयोगजन्य उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों का क्रम निरन्तर बाधाहीन गति से, भूत से वर्तमान बनता हुआ. भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है । यही प्रवाह ही सत्य है यही उत्पाद ध्रौव्य व्यय है-भावी की उत्पत्ति, वर्तमान की स्थिरता एवं भूत का व्यतिक्रम, फिर भी.वस्तु के नैसर्गिक मूल स्वरूप का इन तीनों परिस्थितियों में अटूट भाव से अवस्थितत्व ही तो सत्य के चरम स्वर मंत्र हैं। काल, द्रव्य को इन तीनों परिस्थितियों से ढोता हुश्रा सदा से अग्रसर हो रहा है; काल रुकता नहीं, द्रव्य नष्ट होता नहीं-काल रुक जाय द्रव्य भी मर जाय । इससे सुन्दर स्पष्ट सत्य का उल्लेख और क्या हो सकता है ? काल की आदि नहीं अतः द्रव्य की आदि नहीं, काल का अंत नहीं होता तो द्रव्य को भस्मसात् करने में कौन समर्थ हो सकता है ? जो कुछ आविर्भाव ब तिरोभाव दिखाई देता है वह द्रव्यों का आपस में संयोगजन्य पड़ने वाला प्रभाव है, जो कमी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में महा इतिवृत्त लिखने में दन्तचित्त है और इनी को हम काल कृत कहा करत हैं। . प्रायलिक संयोग उत्पन्न कर, स्वाभाविक रूप से काल विशेष तक स्थिर रहने बाले सूक्ष्माणु स्कंध को छिन्न भिन्न किया जाय तो महान शक्ति उत्पन्न होती है एवं जिसका उपयोग व्यावहारिक ध्वंश अथवा निर्माण के लिये किया जा सकता है-यह आज कतिपय अंशों में मानव बुद्धि गम्य हुआ है। यह भी काल ज्ञान
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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