SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३ ) सूक्ष्मतम (चनु अग्राह्य। देह को धारण करने वाले (चेनन) जीव शारीरिक सुख दुख के स्वरूप को भी समझ नहीं पाते और अधिक तो क्या समझे । जड़ के पांच गुणों की शरीर में अभिव्यक्ति हुये बिना विचारशक्ति का पूर्ण विकास सम्भव नहीं और यह परिपूर्णता मानवाकार में ही सिद्ध होती है । अतः मानव देह धारण न करने तक तो यों ही संयोगानुसार पर्यटन करने को बाध्य होना पड़ता है चेतन को । मानव-पशु अवस्था भी प्रायः ऐसी सी ही बीतती है, कोई परिवर्तन नहीं, क्योंकि मस्तिष्क की शक्तियों का प्रयोग न कर हाथ पर हाथ धरे बैठने वाले को पशु कोटि से उच्च नहीं माना महावीर ने । कार्य के कारण का पूर्वानुमान कर एवं उचित अनुचित का वर्गीकरण कर, उचित का ग्रहण व अनुचित के परित्याग का उपदेश दिया उन्होंने । यह उनका साधना मार्ग था, जिसमें सर्व प्रथम निरर्थक प्रवृत्तियों का त्याग एवं अन्य जीवों को यथासाध्य अपनी तरह सुखी करने की कामना बड़ी बनकर साधक के समस्त व्यवहार को सौम्य बनाये रखती। अपने जीवन को ज्यों २ पराश्रयी सुखों से परे करने में समर्थ हो त्यों २ मानव, सामान्य व्यवहार से उठता जाय एवं भाव विकास के साथ २ प्रवृत्ति द्वारा औरों को युक्त पथ पर ले . जाने का प्रयत्न करे । इस तरह एक २ व्यक्ति अपना साधना काल ब्यतिक्रम कर साध्य ज्ञान व स्वातन्त्रय की उपलब्धि को सार्थक बना सकता है । इसके विपरीत चलकर कोई भी कभी भी सत्य का दिग्दर्शन नहीं कर सकता तथा न कोई सत्पथ पर चलने
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy