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________________ व्यक्ति रूप ईश्वर को चर्म चक्षु से नहीं देखा । निष्कारण या ज्ञान चक्षु अनुत्पन्न पर सदा स्थिर रहने वाले ईश्वर को इस प्रकार तत्त्व का गला घोंटकर मानने की पद्धति मनीषियों के मन को सचमुच प्रकाशित न कर सकी-किमी काल में भी। भावोद्वेग में चाहे कोई कितना ही ईश्वर को क्यों न स्वीकार करे पर सत्य की स्थापना उस आधार पर नहीं की जा सकी कभी। "सत्य' सर्वदा एकाकार है, निश्चल है, सर्व व्याप्त है, बाधा बंधन हीन है. अमर. है-यह कोई भी अमान्य नहीं करता । पर उसी सत्य को हृदयंगम कर यदा कदा उसके सर्व व्यापी रूप को देख कोई मेधावी उसको व्यत्तित्व का बाना पहना दे तो वह सचमुच व्यक्ति नहीं बन जाता । सत्य ईश्वर है यह सभी मानते हैं, महावीर ने भी माना पर उसे हाथ पैर हाड़ मांस या आकार धारण करने वाला व्यक्ति नही माना। विचार के तारापथ पर गमन करने वाले मनीषियों से अविदित नहीं है कि ईश्वर तो सभी नियमों में, स्थानों में, काल में परिच्याप्त रहने वाले प्रवाह का ही का दूसरा नाम मात्र है । यह नियमित अव्याबाध अपरिमेय शक्ति संपन्न महाप्रवाह सर्व महान है,' इस के रोक की कल्पना सहज नहीं, सचमुच यही ईश्वर है-प्रवाह " के तीनों प्रधान स्वरूपों को लेकर भिन्न २ दार्शनिक पद्धतियों का अनुगमन करने वाले समूहों को उत्थान पथ की आदि में बड़ा सहारा मिला एवं बड़े विशाल साहित्य की रचना हुई । महावीर ने विरोध किया तो केवल इतना ही कि बुद्धि गम्य बनाने के लिये maartimp o wer
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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