SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपय भोग व मात्र इन्द्रिय सुख की अभिव्यक्ति ही तुम्हारी शत्रु है। अन्तर परिशुद्ध भावों के समक्ष इन्द्रिय निर्भर भावों की कोई तुलना नहीं, पूर्व को उपादेय मान उत्तर को हेय रल उससे बचते रहो । स्वानुभव तुम्हारे लिये दोनों के विभेद को स्पष्ट करता जायगा । उचित अनुचित का वर्गीकरण कर उचित का ग्रहण अनुचित का त्याग करते जाओ । इस प्रकार विकास में कहीं कोई रोक नहीं जायगी। तुम्हारी सत्यता और निर्मलता तुम्हारे योग्य पथ को सदा आलोकित करती रहेगी । कभी अपने आत्मा के साथ धोखा न करना । क्रमशः तुम स्वयं अपने नियंता हो जाओगे व तुम्हारा ज्ञानानुमव विघ्न बाधाओं का अतिकम करते हुए सत्पथ पर तुमको बढ़ाता चला जायगा। तुम क्रमशः समस्त पदार्थों के परिणामिक भावों का सत्यानुमान कर सकोगे व तुम्हारे लिये यह जगत् छाया चित्र के समान अठखेलियां करता हुआ दिखायी देगा। तुम सब से परे हो जाओगे व ज्ञेय का परावर्तमान वैचित्र्य तुम्हारे लिये ज्ञानात्मक स्फूतियाँ प्रदान करता रहेगा। सवे शक्तिमान काल तुमसे यहीं हार मानेगा व तुमसे मानों संबंध विच्छेद कर लेगा यहीं मिलेगा तुम्हें तुम्हारा चरम स्वरूप जहाँ तुम चेतन हो और रहोगे। तुम्हारी अभिव्यक्ति पर द्वारा नहीं किन्तु स्व स्वरूप द्वारा होगी। जहाँ इन्द्रियों का पारतन्त्र्य न होगा -होगी प्रत्यक्ष ज्ञानानुभव की स्पष्टता व सत्यता । तब नैपथ्ण से आवरित प्रेरणाएं नहीं मिलेंगी अपने स्व स्वभाव की पारदर्शी स्पंदनाए तुम्हें स्पष्ट सत्य से दूर की अस्पष्ट वासनाओं में न फंसायँगी । तुम स्वयं निर्माण व ध्वंश के कारणों से भिज्ञ होकर इच्छानुसार निःस्वार्थ प्रवृत्ति कर सकोगे। सदा भन के धर्य को बनाये रक्खो, निथक प्रवृत्ति न करो, यथाशक्य अपनी योग्यतानुसार प्राणिमात्र की हिंसा से बचो व प्रशम संवेग
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy